मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

अनंतबोध चैतन्य की श्रीगुरु स्वामी श्री विश्वदेवानन्द जी से पहली मुलाकात


 मुझसे बहुत लोग पूछते है कि मैं (अनंतबोध चैतन्य) स्वामी जी (गुरूजी ब्रह्मलीन स्वामी श्री विश्वदेवानन्द पुरी जी) से कैसे मिला। आज मैं  बताना चाहूँगा। ये बात है 2003 की मैं  और श्री त्रयम्बकेश्वर चैतन्य जी श्रीनर्मदा परिक्रमा के लिए श्री ओंकारेश्वर तीर्थ में थे और वहां से श्रीसाम्बसदाशिव का विधिवत पूजन कर माँ नर्मदा जी से प्रार्थना कर हमने अपनी श्री नर्मदा जी की यात्रा आरम्भ की।  

यात्रा के चौथे पांचवे दिन श्री नर्मदा जी के तट पर ही स्वामी आत्मानंद जी जो महानिर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर है वो अपनी तीन लोगो की मंडली के साथ हमें मिले। बहुत सारा शास्त्र चिन्तन हुआ।  हम लोगो ने लगभग पांच छह दिन साथ में ही परिक्रमा की। वहां स्वामी आत्मानंद जी ने मुझे पूछा आप किस के शिष्य हो ? मैंने  कहा मैं अभी गुरु की खोज में ही हूं। तो उन्होंने मुझे निर्वाण पीठाधीश्वर स्वामी विश्वदेवानंद जी के बारे में बताया। मैंने कहा कि मेरी कुछ शर्ते है जो उन पर खरा उतरेगा उन्हें ही गुरु के रूप में धारण करूँगा।  स्वामी जी ने कहा आपको कैसे गुरु चाहिए? मैंने कहा जो भाई भतीजा वाद से ग्रस्त न हो, और चेली वाद से परे हो। जो पुरातन पंथी न हो। जो क्षेत्र वाद से परे हो।  जो लालची न हो, और संकुचित विचारधारा के न हो।  स्वामी आत्मानंद जी बोले हमारे आचार्य जी इन सब से परे है।  आप एक बार उनसे मिल लीजिये फिर बताइयेगा। स्वामी जी ने मुझे कहा की आचार्य जी को भी किसी योग्य विद्वान की खोज है। यही पहला मेरा परिचय गुरूजी से स्वामी आत्मानंद जी ने करवाया। 

क्योकि स्वामी आत्मानंद जी श्रीनर्मदापरिक्रमा के उद्देश्य से परिक्रमा नहीं कर रहे थे वो तो केवल भगवती की कृपा प्राप्ति के लिए हर वर्ष कुछ दिन नर्मदा जी के किनारे विचरण करते थे। स्वामी आत्मानंद जी नर्मदा जी के किनारे आश्रम बनाना चाहते थे और उन्होंने बहुत सुंदर आश्रम श्री नर्मदा जी के तट पर बनाया भी।  उसके बाद  त्रयंबकेश्वर चैतन्य जी और मैं भगवती श्री नर्मदा जी की परिक्रमा मार्ग पर अग्रसर हो गए।   श्री नर्मदा जी के तट पर बहुत आनंद की प्राप्ति हुयी।  नित्य प्रति सत्संग और शिवाभिषेक हुए।  बहुत दिव्य महापुरुषों के दर्शन भी हुए।  मुझे ऐसा लगता है कि श्रीनर्मदा परिक्रमा के पुण्य स्वरुप ही श्री गुरु की प्राप्ति हुयी। 

पुनः मैं 2004 के उज्जैन कुम्भ में महानिर्वाणी अखाड़े की छावनी में मुझे गुरु जी के प्रथम दर्शन हुए।  उसके बाद अप्रैल 2005 में मेरी गुरु जी से फोन पर बात हुयी। गुरु जी ने मुझे  श्री संन्यास आश्रम, अहमदाबाद में  आने को कहा। गुरु जी की  आज्ञानुसार मैं आश्रम में उपस्थित हुआ।  गुरु जी ने मुझसे पुछा 'कि मैं साधु क्यों बनना चाहता हूँ ?"

मैंने कहा कि मैंने पढ़ा है "यद् अहरेव विरजेद् तदहरेव प्रवजेद्" तो मुझे वैराग्य हो गया है अतःएव मैं विधिवत गुरु की शरण में रहकर उपासना और सेवा करना चाहता हूँ।  गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए  उन्होंने मुझे कोठारी से मिलने को कहा।  उस समय स्वामी कृष्णानंद जी संन्यास आश्रम के कोठारी थे।  आश्रम में मुद्रा बहन, जयश्री बहन और बिखु काका मैं प्रथम दिन ही मिला।  फिर गुरूजी ने मुझे लंगोटी, वस्त्र और मंत्र दिया। गुरूजी ने कहा "कि आज से तुम्हारा नाम अनंतबोध चैतन्य हुआ।" और  मुझे मठाम्नाय के बारे में भी बताया।  गुरूजी ने न मुझसे मेरी जाती पूछी न ही जन्म स्थान और न ही मेरी शिक्षा के बारे में कुछ पूछा।  फिर दो तीन दिन बाद गुरु जी ने मुझे अपने पास बुलाया और गीता व उपनिषद के बारे में मेरा कितना अध्ययन है इसके बारे में पूछा। मैंने गुरूजी को बताया कि मैंने बाबा गुरु जी नरवर से प्रस्थान त्रयी का अध्ययन किया है और श्री सांगवेद महाविद्यालय नरवर से दर्शन विषय में आचार्य किया है।  उसके बाद मैंने मेरी पारिवारिक पृष्टभूमि के बारे में गुरूजी को अवगत कराया। गुरु जी ने कहा कि वो मेरी जन्म भूमि चलेंगे। और गुरूजी मेरी जन्म भूमि गए भी।  गुरूजी ने कहा कि मैं कोई भगोड़ा नहीं हूँ।  गुरु जी की बातों को याद करके अभी भी मुझे रोमाञ्च होता है।  

तो ऐसे मेरी गुरु जी के साथ मुलाकात हुयी। 

ॐ नमो नारायणाय। 

रविवार, 7 फ़रवरी 2021

स्वामी श्रीशरदपुरी जी महाराज

   ।। श्रीशरदपुरीमहाराजपञ्चम् ।। 

 विद्यावैभवसंयुतं शिवकृपास्नातं शुभाढ्यं गुरुं वेदार्थैकविवक्तृरूपमतुलौदार्यैस्सदाढ्यं द्विजं शास्त्रोल्लाससमन्वितं हरिकथागानैस्सदानन्दितं वन्दे श्रीशरदं पुरीं मुनिवरं सत्यैकनिष्ठं प्रभुम्।।१।।

 विद्या के वैभव (ऐश्वर्य) से युक्त, भगवान् शिव की कृपा से नहाए हुए, वेदों के अर्थ विशेष वक्ता स्वरूप, अतुलनीय उदारता से सदा धनवान्, ब्राह्मण, शास्त्रों के ज्ञान से उल्लासित, हरि की कथा से सदा आनंदित,सत्य के प्रति एकनिष्ठ, मुनिवर, श्रीशरद पुरी जी महाराज को मैं प्रणाम करता हूं।। 

 नानाख्यानकथासुगाननिपुणं ब्रह्मौजसा भासितं विज्ञानाक्षियुतं ह्यदृश्यमपि यस्संलोकयेद्दृश्यवत् नम्रत्वादिगुणैर्महत्वपरकश्शैवार्थयुक्तं यतिं वन्दे श्रीशरदं पुरीं शमकरं लोकोपकारे रतम्।।२।। 

 अनेक प्रकार के आख्यान और कथाओं को गाने में जो अत्यंत निपुण हैं , ब्रह्म के तेज से विभासित हैं, विज्ञान की दृष्टि वाले हैं , अदृश्य को भी जो साक्षात् दृश्य की तरह देख लेते हैं , नम्रता आदि गुणों के कारण महान्, शैव अर्थ से युक्त , महात्मा, शांति प्रदान करने वाले , संसार के कल्याण में लगे रहने वाले , श्री शरद पुरी महाराज को प्रणाम करता हूं।

 दिव्यत्वप्रतिपादकं सुविमलं देवार्चनातत्परं पुण्याभाविलसन्मुखं शिवगुरोर्मोदाम्बुधौ मज्जितं सारल्यप्रतिमूर्तिमेव सुगुरुं श्रौतप्रभाभासितं वन्दे श्रीशरदं पुरीं मखकरं विप्रप्रियं भावुकम्।।३।। 

 दिव्यत्व का प्रतिपादन करने वाले निर्मल चरित्र देवताओं की अर्चना में तत्पर पुणे की आभा से विरासत मुख वाले शिव गुरु की आनंद सागर में डूबे हुए , सारल्य की प्रतिमूर्ति, सच्चे गुरु , श्रौत की प्रभा से उद्भासित,यज्ञ कराने वाले , ब्राह्मणों के प्रिय और भावुक, श्री शरद पुरी महाराज को मैं प्रणाम करता हूं। 

 तात्पर्यार्थविवेचकं सुमनसां कार्यैस्सदानन्दितं विद्वद्भिर्बहुशास्त्रधारिपुरुषैर्भक्त्या समावन्दितं लोकालोकसुखप्रदं भगवतीपूजाश्रियोद्भासितं वन्दे श्रीशरदं पुरीं शतगुणं मोहादिभिर्वर्जितम्।।४।। 

 तात्पर्य अर्थ का विवेचन करने वाले सज्जनों के कार्यों से सदा आनंदित होने वाले , विद्वानों और बहुत से शास्त्रों को धारण करने वाले पुरुषों के द्वारा , भक्ति पूर्वक वंदन किए जाते हुए, लौकिक और अलौकिक सुख प्रदान करने वाले , भगवती की पूजा रूपी श्री से उद्भासित स्वरूप वाले,सैकड़ों गुणों को धारण करने वाले , मोह आदि से दूर श्री शरद पुरी महाराज की मैं वंदना करता हूं। 

 सत्यार्थप्रियमाशुतोषशरणं श्रीरामपूजाश्रयं दिव्यार्थप्रतिपादकं सदसतोर्भेदे सुदक्षं धिया दाने रागयुतं च दीनजनतोद्धारे रतं सत्प्रियं वन्दे श्रीशरदं पुरीं हरिगुणं धर्मैकचिन्तारतम्।।५।। 


 सत्य अर्थ को प्रेम करने वाले , आशुतोष भगवान् शिव की शरण लेने वाले , श्री राम की पूजा ही है आश्रय जिनका ऐसे, दिव्य अर्थ के प्रतिपादक , सत्य और असत्य में अपनी बुद्धि के द्वारा भेद करने में बहुत ही निपुण, दान देने में राग युक्त , दीन जनता का उद्धार करने में लगे रहने वाले , सज्जनों के प्रिय, केवल धर्म का चिंतन करने में लगे रहने वाले , भगवान् विष्णु के गुणों का ध्यान करने वाले, श्री शरद पुरी महाराज को मैं प्रणाम करता हूं।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

Magical effects of sound therapy



Magical effects of sound therapy


 Indian ancient literature has a mention of chants and sound therapy on multiple occasions to overcome serious illnesses. The “Pran”, “Tejas” and “Ojas”, in the body are the basic elements which control the “Vaat”, “Pitt” and “cuff”. To balance these energies, there is an essential requirement of sounds, waves and mental chants, which have been proved to be very effective. Nowadays many countries are researching in the field of sound healing therapy. 

The Tibetan Singing Bowl Session, which is also known as Sound & Vibration Healing Therapy is quite renowned therapy. The sound of singing bowls resonates and vibrates helping one to relax, meditate, sleep or any other benefit you might find from them. In Italy, studies are being carried out on the effects of Mozart Music and its effects on the mind. 

The sound healing technique is very effective on our mind waves and brain functions. Due to sound waves, waves and mental chants, the brain creates pneumatic energy which is beneficial for the nerves, veins, arteries and hormonal secretion. These waves create energy with every breath we inhale or exhale. 

This combination of generated energy and sound waves re-energise the destroyed cells and fibres and cures blockages and regular practice makes the patient healthy. It has been found beneficial for hypertension and other cardiovascular diseases. “Our physical health is dependent on both bodily and mental health. A healthy mind leads to a healthy body. Do you know that cosmic sounds generate energy and waves which can cure a dull mind?

रविवार, 31 जनवरी 2021

Brahmalin Swami Amalananda Giri




It is my immense pleasure to write about a great man who dedicated his whole life to cows and the service of Humanity. He was a very close friend of mine. today I am written about Brahmalin Swami Amalananda Giri Ji. Swami Amalanand Ji will remain alive in our heart forever.

Swami Amalananda Giri born in a pious family, he had a very deep attraction for spiritual life which was reflected in his day to day activities. Since his childhood, he had the intuition that he will dedicate his entire life for Self realization and for the service of humanity. He spent his young life under the feet of ascetics, monks and spiritual masters of the Himalayas. When his aspiration for spiritual quest reached its peak, he was initiated by one of the great spiritual masters of India, belonging to a lineage of Adi Shankaracharya and Adi Dattatryea, Mahamandelshwar Swami Lokeshananda Giriji. His Guru not only initiated him into the order of one of the greatest orders of Sannyas (Monks) in India which is more than 800 years old but also taught him important scriptures aimed at knowing the purpose of life and Sadhana (spiritual practices) which culminates into the realization of The Absolute of the west i.e. The Brahman of Vedas or The Ultimate Consciousness. 

Swami Amalananda Giri practised meditation and spiritual Sadhana at many places; the most important ones are forests of Girnar, Junagarh, Gujrat at the bank of river Narmada; Haridwar, the Spiritual Nucleus of India; Gangotri, The Himalayan region at the height of more than 11,000 ft above sea level. 

The deep aspiration for spirituality within him led him to practice meditation in chilly winter, high up mountains in Himalayan in solitude for many years. His Master inspired him to serve humanity through his knowledge, realizations and deeper understanding of Yoga. Keeping in mind the grace of his Guru, he established Tripura Yogashram in 1991, at Kankhal, Haridwar, Uttranchal, India rededicating his entire life for humanity. He aims all his teaching at “know Thyself” which is the highest teachings of Vedas. Since the establishment of Tripura Yogashram, it served as a spiritual abode for many great and famous saints and yoga experts of modern India like Baba Ramdevji, Swami Karmvirji, Swami Rama, Acharya Bal Krishna besides others. 

Swamiji taught Patanjali Yoga, Meditation, and other Hatha Yoga practices with ease, clarity and deeper understanding in order to inculcate lifestyle amongst people seeking spiritual awakening, health care and disease management. he guided, inspires, conducts practical programs from the ancient wisdom of Yoga, Ayurveda, Nature Cure and other allied sciences. His simple but easy and holistic programs have attracted people from all over the world. 

He had organized Yoga camps in the UK, USA, Canada, Switzerland, South Africa, Zimbabwe, Mauritius and many parts of India out of humility and without asking any fees for it. This has attracted people from all over the world to Tripura Yogashram where they find peace, eternity and bliss vibrating all time. 

His ashram is wholly dependent upon donations received from his devotees all over the world. The donations received are used for offering scholarships to children who can not afford their fees for studies. Further, donations are also used for medications and helping downtrodden children from society. What he teaches also practices in his day to day life. His life and action convey one message,” Help the poor and heal the world from its sufferings” through Vedic and yoga teaching aimed at human upliftment.

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

क्या है "यम नियम" जानिए श्री अनंतबोध चैतन्य से


“योग के अष्टांग में पहले दो स्तंभ यम और नियम की व्याख्या”, जो श्री अनंतबोध चैतन्य द्वारा लिखित है। 


योग में अनुशासन का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। अनुशासन हमें दिव्य संरक्षण देता है। पाँच यमों में अहिंसा (हिंसा का कोई भी रूप नहीं), सत्य (सत्य आचरण), अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (चरित्रवान होना) और अपरिग्रह (जमाखोरी नहीं) शामिल हैं। पाँच उपदेशों में शौच (पवित्रता), संतोष (संतोष), तप (आत्म-नियंत्रण) और सहनशीलता (तपस्या), स्वाध्याय (आत्म-ज्ञान) और ईश्वर प्रणिधान (भगवान की भक्ति) शामिल हैं। योग में प्रवेश करने वाले साधक के लिए आवश्यक है कि वह आत्म-कल्याण के अभ्यास के साथ-साथ यम-नियमों का ज्ञान प्राप्त करे। उन्हें समझें, सोचें, चिंतन करें और उन्हें अमल में लाने की कोशिश करें। यम-नियम की दोनों उपलब्धियाँ असाधारण हैं। महर्षि पतंजलि ने अपने योग दर्शन में बताया है कि इन दस का अभ्यास महत्वपूर्ण रिद्धि-सिद्धि देता है। आइए पहले पांच यमों को समझते हैं। 

यम (आंतरिक अनुशासन): 

1. अहिंसा (अहिंसा): अहिंसा दो प्रकार की होती है, प्रमुख और सूक्ष्म। अहिंसा का अर्थ है न मारना, न अत्याचार करना, न शोक करना। ऐसी हरकतें जिनके द्वारा किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुंचाया जाता है, हिंसा कहलाती है, इसलिए उन्हें किसी अहिंसक पर्यवेक्षक के लिए विनाशकारी बनाना, किसी की हत्या करने के अलावा, व्यंग्य बोलना, दिल दुखाना, उन पर अत्याचार करना, हिंसा एकमात्र तरीका है अहिंसा से बचें। इसे पालन-पोषण कहा जाएगा। 

 2. सत्य: मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन और असत्य का त्याग ही सत्य है। वास्तव में, सच्ची सोच, कथन और क्रिया में सत्य का संस्कार आवश्यक है। उस वस्तु का ज्ञान उस रूप में धारण करना सही है, जिसमें किसी वस्तु का पता चलता है या जैसा कि वह कारण या अनुमान से जाना जाता है या अधिकारियों को ज्ञात होता है और उसी रूप में दूसरों को बताता है। दूसरों के लिए, लाभ ही परम और सच्चा ज्ञानवर्धक ज्ञान है। यहां, न केवल झूठे शब्दों का परित्याग स्वीकार किया जाता है, बल्कि अप्रिय शब्दों से बचा जाता है। एक महान शक्ति एक ऐसे व्यक्ति के उच्चारण में आती है जो कभी झूठ नहीं बोलता, जो कुछ भी कहता है वह सच हो जाता है। 

 3. अस्तेय: अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। दूसरे की वस्तु प्राप्त करने की इच्छा मन द्वारा चोरी है। मन से भी शरीर या वाणी से चोरी न करें। सीधे शब्दों में कहें, यह जाता है - दूसरे का स्वामित्व अपहरण अचल है और इसकी अनुपस्थिति अजेय है। 

 4. ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य का अर्थ है मानसिक और शारीरिक चरित्र का रखरखाव। इसका मतलब कामुक प्रलोभन से उपजना है, न कि अपने मन को पकड़ने की कामुक इच्छा की विधा को अनुमति देना। ब्रह्मचर्य की साधना के माध्यम से, आपको शक्ति, वीर्य लाभ के भंडारण के रूप में जाना जाता है। मन, कर्म और शब्दों में ब्रह्मचर्य के रूप में स्थापित होने का परिणाम यह है कि आप ध्यान में बहुत कम प्रयास करते हैं और धारणा तेज होती है। यदि भगवान को याद करने के लिए आपका आचरण कर्तव्य और भगवान शिव और आपके लामाओं (आंतरिक मामलों) को जानने के लिए आपका कर्तव्य सुरक्षित है: 

 5. अपरिग्रह: अपरिग्रह का अर्थ है जमाखोरी का अभाव। जितनी अधिक चीजें आप जमा करेंगे, उतना ही आप उनकी सुरक्षा और देखभाल के लिए चिंतित और पूर्वाग्रही रहेंगे। हमें सभी बेकार वस्तुओं को कबाड़ करना चाहिए। इन वस्तुओं को जरूरतमंद लोगों को वितरित करने से पहले उन्हें और अधिक बेकार हो जाने पर वितरित करें। होर्डिंग की अनुपस्थिति से चिह्नित राज्य में स्थापित होने पर आपको जो फल प्राप्त होता है वह यह है कि आप अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को जानने में सक्षम हो जाते हैं। यह वह शक्ति है जो इसका अनुसरण करती है जो जमाखोरी नहीं करती है। 

 नियम (बाहरी अनुशासन) 

 1 : शौच (पवित्रता), शौच का अर्थ है स्वच्छता, पवित्रता का सार; शरीर, मन और जीभ की पवित्रता। ईश्वर की चेतना के लिए शरीर को स्वच्छ रखना आवश्यक है। मन को सभी विकट और अशुद्ध विचारों को शुद्ध और शुद्ध करना चाहिए। भाषण की पवित्रता से मेरा मतलब है कि आपके द्वारा बोले गए शब्द कठोर या आहत नहीं होने चाहिए। आपको हमेशा सच बताना चाहिए। अपने शब्दों और कार्यों के साथ अच्छे और विनम्र बनें। फल जो शरीर, मन और कर्म की शुद्धता (थैली) को बनाए रखने से प्राप्त होता है, वह यह है कि आपके शरीर और बाहरी सुंदरता के लिए आपकी पसंद कम हो जाएगी। यह बदले में आपको ईश्वर प्राप्ति की ओर प्रेरित करेगा। 

 2 संतोष: संतोष का अर्थ है वास्तविक संतुष्टि। आपको अपनी हर चीज से संतुष्ट होना चाहिए। प्रभु से उपहार के रूप में आपके पास जो कुछ होना चाहिए वह आपको लेना चाहिए। स्वामी जानते हैं कि क्या देना है, कितना देना है और कैसे देना है। 

 3 तप: इसका अर्थ है अपनी क्षमता और परिस्थितियों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना, भले ही आप कठिनाइयों का सामना करें। यह मेरी सलाह है कि आप खुद को अतिरिक्त भोजन से भरा हुआ न खाएं। आपको अपना पेट थोड़ा खाली छोड़ देना चाहिए। इससे आपका शरीर बना रहेगा और आपका दिमाग सतर्क और सतर्क रहेगा। यह दुनिया धूल को अपने पैरों के नीचे कुचल देती है, लेकिन सत्य के साधक को भी धूल से विनम्र होना चाहिए। सहनशील बनें। किसी ऐसे व्यक्ति को माफ़ कर देना जो आपका कुछ बुरा करे। आप बहुत शांति महसूस करेंगे और इस प्रकार अधिक प्रशंसा अर्जित करेंगे, न कि उस पर चिल्लाकर या उसे अपने ही सिक्के में वापस भुगतान करके। यह आत्म-नियंत्रण वास्तविक तपस्या और धैर्य और लंबे समय तक पीड़ा का सार है। इसके बिना आप ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते। वह फल जो स्वयं ग का अभ्यास करने से आता है नियंत्रण और सहिष्णुता यह है कि इसके माध्यम से, आपके शरीर और अंगों में मौजूद अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं और आप ताकत से भर जाते हैं। 

 4 स्वाध्याय: आपको भगवद गीता जैसे शास्त्रों के अध्ययन और चिंतन के लिए अपना समय समर्पित करना चाहिए। आपको खुद को समझकर खुद को जानने की कोशिश करनी चाहिए। आत्मनिरीक्षण करें और अपनी गलतियों को सुधारने का प्रयास करें। आपको हर तरह की गॉसिप को रोकना होगा। किसी से बीमार न बोलें। धर्मग्रंथों के निरंतर अध्ययन के माध्यम से आत्म-ज्ञान के निरंतर प्रयास से मिलने वाला फल यह है कि आप जिस भगवान को चाहते हैं (भगवान) आपको चमक देगा। इसे अपने भौतिक रूप में प्रकट होने और स्वयं को प्रकट करने की आवश्यकता नहीं है। यहां तक कि जो लोग भगवान शिव को अपने सपनों में देखते हैं वे अत्यधिक भाग्यशाली और धन्य आत्माएं हैं। 

 5 ईश्वर प्रणिधान: यह अंतिम और सर्वोच्च निमय है। इसका अर्थ है भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति। यदि आप ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसके प्रति समर्पित हैं, तो आपके लिए उसे अनदेखा करना संभव नहीं है। वह खुद को आपके सामने प्रकट करेगा और अपनी शानदार अठारह भुजाओं से आपको शुद्ध करेगा जो आपको ईश्वर चेतना के दायरे में प्रवेश करने में मदद करेगा। भगवान शिव की भक्ति से, अनायास ही समाधि मिल जाती है। भगवान के प्रति समर्पण पूर्ण होना चाहिए जहां शरीर और मन दोनों को भगवान की इच्छा के सामने समर्पण करना होगा।

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