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मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

अनंतबोध चैतन्य की श्रीगुरु स्वामी श्री विश्वदेवानन्द जी से पहली मुलाकात


 मुझसे बहुत लोग पूछते है कि मैं (अनंतबोध चैतन्य) स्वामी जी (गुरूजी ब्रह्मलीन स्वामी श्री विश्वदेवानन्द पुरी जी) से कैसे मिला। आज मैं  बताना चाहूँगा। ये बात है 2003 की मैं  और श्री त्रयम्बकेश्वर चैतन्य जी श्रीनर्मदा परिक्रमा के लिए श्री ओंकारेश्वर तीर्थ में थे और वहां से श्रीसाम्बसदाशिव का विधिवत पूजन कर माँ नर्मदा जी से प्रार्थना कर हमने अपनी श्री नर्मदा जी की यात्रा आरम्भ की।  

यात्रा के चौथे पांचवे दिन श्री नर्मदा जी के तट पर ही स्वामी आत्मानंद जी जो महानिर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर है वो अपनी तीन लोगो की मंडली के साथ हमें मिले। बहुत सारा शास्त्र चिन्तन हुआ।  हम लोगो ने लगभग पांच छह दिन साथ में ही परिक्रमा की। वहां स्वामी आत्मानंद जी ने मुझे पूछा आप किस के शिष्य हो ? मैंने  कहा मैं अभी गुरु की खोज में ही हूं। तो उन्होंने मुझे निर्वाण पीठाधीश्वर स्वामी विश्वदेवानंद जी के बारे में बताया। मैंने कहा कि मेरी कुछ शर्ते है जो उन पर खरा उतरेगा उन्हें ही गुरु के रूप में धारण करूँगा।  स्वामी जी ने कहा आपको कैसे गुरु चाहिए? मैंने कहा जो भाई भतीजा वाद से ग्रस्त न हो, और चेली वाद से परे हो। जो पुरातन पंथी न हो। जो क्षेत्र वाद से परे हो।  जो लालची न हो, और संकुचित विचारधारा के न हो।  स्वामी आत्मानंद जी बोले हमारे आचार्य जी इन सब से परे है।  आप एक बार उनसे मिल लीजिये फिर बताइयेगा। स्वामी जी ने मुझे कहा की आचार्य जी को भी किसी योग्य विद्वान की खोज है। यही पहला मेरा परिचय गुरूजी से स्वामी आत्मानंद जी ने करवाया। 

क्योकि स्वामी आत्मानंद जी श्रीनर्मदापरिक्रमा के उद्देश्य से परिक्रमा नहीं कर रहे थे वो तो केवल भगवती की कृपा प्राप्ति के लिए हर वर्ष कुछ दिन नर्मदा जी के किनारे विचरण करते थे। स्वामी आत्मानंद जी नर्मदा जी के किनारे आश्रम बनाना चाहते थे और उन्होंने बहुत सुंदर आश्रम श्री नर्मदा जी के तट पर बनाया भी।  उसके बाद  त्रयंबकेश्वर चैतन्य जी और मैं भगवती श्री नर्मदा जी की परिक्रमा मार्ग पर अग्रसर हो गए।   श्री नर्मदा जी के तट पर बहुत आनंद की प्राप्ति हुयी।  नित्य प्रति सत्संग और शिवाभिषेक हुए।  बहुत दिव्य महापुरुषों के दर्शन भी हुए।  मुझे ऐसा लगता है कि श्रीनर्मदा परिक्रमा के पुण्य स्वरुप ही श्री गुरु की प्राप्ति हुयी। 

पुनः मैं 2004 के उज्जैन कुम्भ में महानिर्वाणी अखाड़े की छावनी में मुझे गुरु जी के प्रथम दर्शन हुए।  उसके बाद अप्रैल 2005 में मेरी गुरु जी से फोन पर बात हुयी। गुरु जी ने मुझे  श्री संन्यास आश्रम, अहमदाबाद में  आने को कहा। गुरु जी की  आज्ञानुसार मैं आश्रम में उपस्थित हुआ।  गुरु जी ने मुझसे पुछा 'कि मैं साधु क्यों बनना चाहता हूँ ?"

मैंने कहा कि मैंने पढ़ा है "यद् अहरेव विरजेद् तदहरेव प्रवजेद्" तो मुझे वैराग्य हो गया है अतःएव मैं विधिवत गुरु की शरण में रहकर उपासना और सेवा करना चाहता हूँ।  गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए  उन्होंने मुझे कोठारी से मिलने को कहा।  उस समय स्वामी कृष्णानंद जी संन्यास आश्रम के कोठारी थे।  आश्रम में मुद्रा बहन, जयश्री बहन और बिखु काका मैं प्रथम दिन ही मिला।  फिर गुरूजी ने मुझे लंगोटी, वस्त्र और मंत्र दिया। गुरूजी ने कहा "कि आज से तुम्हारा नाम अनंतबोध चैतन्य हुआ।" और  मुझे मठाम्नाय के बारे में भी बताया।  गुरूजी ने न मुझसे मेरी जाती पूछी न ही जन्म स्थान और न ही मेरी शिक्षा के बारे में कुछ पूछा।  फिर दो तीन दिन बाद गुरु जी ने मुझे अपने पास बुलाया और गीता व उपनिषद के बारे में मेरा कितना अध्ययन है इसके बारे में पूछा। मैंने गुरूजी को बताया कि मैंने बाबा गुरु जी नरवर से प्रस्थान त्रयी का अध्ययन किया है और श्री सांगवेद महाविद्यालय नरवर से दर्शन विषय में आचार्य किया है।  उसके बाद मैंने मेरी पारिवारिक पृष्टभूमि के बारे में गुरूजी को अवगत कराया। गुरु जी ने कहा कि वो मेरी जन्म भूमि चलेंगे। और गुरूजी मेरी जन्म भूमि गए भी।  गुरूजी ने कहा कि मैं कोई भगोड़ा नहीं हूँ।  गुरु जी की बातों को याद करके अभी भी मुझे रोमाञ्च होता है।  

तो ऐसे मेरी गुरु जी के साथ मुलाकात हुयी। 

ॐ नमो नारायणाय।