श्री अनन्तबोध चैतन्य द्वारा जकार्ता मे पढ़ा गया मानव सभ्यता मे रामायण की महत्ता पेपर ................
मुझे ये कहते हुये परम प्रसन्नता एवं
गर्व का अनुभव हो रहा है कि रामायण विश्व साहित्य का आदि काव्य है। रामायण का समय
त्रेतायुग का माना जाता है। भारतीय
कालगणना के अनुसार समय को चार युगों
में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग एव कलियुग। एक कलियुग 4,32,000 वर्ष का, द्वापर
8,64,000 वर्ष का, त्रेता युग
12,96,000 वर्ष का तथा सतयुग
17,28,000 वर्ष का होता है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय न्यूनतम 8,70,000 वर्ष (वर्तमान कलियुग के
5,250 वर्ष + बीते द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष)
सिद्ध होता है । बहुत से विद्वान इसका तात्पर्य इसा पू. 8000 से
लगाते है जो आधारहीन है। अन्य विद्वान इसे इससे भी पुराना मानते हैं।
करुणार्दचित्त महर्षि बाल्मीकि के
मानस सागर से निसृत रामायण रूपी ज्ञान गंगा मे मानवीय सभ्यता के सभी पक्षो का उदात्त
चित्रण इसमे समाविष्ट है इस ज्ञान विज्ञान कि सरिता मे अवगाहन कर कोई भी सभ्यता
अपनी, आत्मिक बौद्धिक एवं
मानसिक मलिनता को दूर कर सकता है।
किसी सभा समुदाय या समाज मे उठने
बैठने तथा रहने योग्य मनुष्य को सभ्य कहा जाता है उसी के भाव को सभ्यता कहते है।
सभ्यता हमारा बाह्य रहन सहन, खान
पान, आचरण भौतिक विकास पारिवारिक सामाजिक संस्कार आदि का
परिचायक होता है । संस्कृति हमारी आंतरिक सोच ज्ञान विज्ञान आदि प्रेरक तत्व को
बताती है। वैसे आंतरिक ही बाह्य आचरण का कारण होता है । रामायण मानव सभ्यता के
विकास मे परम सहयोगी है तथा सदा सर्वदा रहेगी। रामायण के बारे मे कहा गया है कि –
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले। तावत् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।।
काव्य का प्रयोजन होता है – रामादिवत् प्रवर्तितव्यं न रावणादिवत्
हमे श्रेष्ठ
पुरुषो राम आदि के समान आचरण करना चाहिये रावण आदि के समान नहीं
रामायण कालीन सामाजिक दर्शन -
प्रत्येक
व्यक्ति अपने ज्ञान एवं विचार के अनुरूप हि आचरण करता है . और जैसे करता है वैसा
हि बन जाता है. जीवन का यही सूत्र है । महर्षि वाल्मीकि ने रामचरित्र के माध्यम से मानव जीवन या मानव सभ्यता के विकास मे अपेक्षित सभी
गुणो की आवश्यकताओ की चर्चा की है, जिसकी विश्व के प्रत्येक सभ्यता को सदा आवश्यकता रहेगी । आइये कुछ
बिन्दुओ पर विचार करते है :----------
रामायण मे वर्णित रामराज्य की सभी
प्रजा वेदज्ञ थी ज्ञान सम्पन्न शूरवीर संसार के कल्याण मे संलग्न तथा समस्त मानवीय
गुणो जैसे दया, सत्यपरता, पवित्रता, उदारता आदि से युक्त थे.....
सर्वे वेदविदः शूराःसर्वे लोकहिते रताः सर्वे ज्ञानोपसम्पन्नाःसमुदिता गुणैः( बालकाण्ड,बाल्मिकीय रामायण 18/25)
समाज मे सभी
वर्ण (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शुद्र) एक दुसरे क सहयोग करते हुये रहते थे
जाति भेद य वर्ण भेद कि दूषित भावना नही थी तथा सभी को समान अधिकार तथा न्याय
प्राप्त होता था। :---------
ब्रह्मक्षत्रमह्रिसन्त्तस्ते
कोशं संपूरयन् सुतीक्ष्णदण्डाः संप्रेक्ष्य पुरुषस्या बलाबलम्...
रामायण एक ऐसे
सभ्य समाज के निर्माण को संदेश देता है जिस समाज मे धार्मिक न्याय प्रिय राजाओ के
सुशासन मे संपुर्ण समाज धन धान्य से युक्त हो। सभी गौ आदि पशुओ से समृध, अश्वादि आशुगामी वाहनो से
युक्त तथा कोइ भी निर्धन नही हो।
आधुनिक सभ्यता
मे हम लोग अंध विकास मे आगे दौड़ रहे है
जहां सम्पूर्ण विश्व विकास के नाम पर विनाश की तरफ बढ़ रहा है । औद्योगिक विकास यान
वाहनों के प्रदूषण से प्रकृति को नष्ट करने तुले हुये है। रामायण के अनुसार धन
धान्य-समृद्धि का मूल गौमाता है । वेद मे भी कहा गया है है कि ---
“धेनुः
सदनं रयीणाम्” गाय
सर्वविध धन समृद्धि की खान है ।
प्राकृतिक एवं शुद्ध गौ वंश की रक्षा
कर हम मानव सभ्यता को स्वस्थ एवं दीर्घायु कर सकते है। तथा अश्व युक्त वाहनों और
तत्कालीन बिना ईंधन से उड़ने वाले हवाई जहाजों(पुष्पक विमान) की खोज कर उनके प्रयोग
से विश्व पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त कर सकते है।
रामायण कालीन सभ्यता का वर्णन करते
हुये बाल्मीकि मुनि जी कहते है –कि
अयोध्या नगरी मे कोई नर नारी कामी, कंदर्प , निष्ठुर, मूर्ख ( अविद्वान ) और नास्तिक नहीं था।
सभी नर नारी धार्मिक , जितेंद्रिय महर्षियों के समान
सच्चरित्र एवं शालिन थे। सभी लोग नित्य अग्निहोत्र करते थे। कोई क्षुद-वृत्ति वाला
या चोर नहीं था । सभी अंहिसा यम नियमो का पालन करते और दानी थे। कोई भी व्यक्ति
पागल तनावग्रस्त या व्यथित चित्त वाला नहीं था । सभी पुत्र पौत्र सहित आनंद पूर्वक
दीर्घायु जीवन व्यतीत करते थे।
इस प्रकार तत्कालीन सभ्यता का चित्रण
हमे उस तरह का एक समृद्ध , ज्ञानवान , शीलवान तथा धार्मिक मानव सभ्यता की महत्ता को बताता है । आज उस का अनुसरण
कर अपनी विकृत सामाजिक व्यवस्था को दूर कर एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सकता
है ।
संस्कार –
एक सभ्य मनुष्य एवं समाज तथा विश्व के
निर्माण के लिए सोलह संस्कारों ( गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यंत) की मानव
जीवन में अत्यंत महत्ता है। जिन कर्मो से मानव जीवन मे हम लोग उत्कृष्ट गुणोंका
आधान कर सके उसे संस्कार कहते है । वैदिक गृह्य सूत्रोंमे इनका विस्तार से वर्णन
मिलता है । यदि हम मनुष्य को श्रेष्ठ बनाना चाहते है तो प्रत्येक व्यक्ति के
संस्कार करने चाहिए। सच्चे अर्थों मे एक श्रेष्ठ व्यक्ति ही एक सभ्य मनुष्य कहलाने
का अधिकारी होता है । तथा उसी से श्रेष्ठ सभ्यता का निर्माण होता है । रामायण मे
गर्भाधान , पुंसवन ,जातकर्म तथा नामकरण आदि संस्कारों का उल्लेख मिलता है । जैसे महर्षि वशिष्ठ
द्वारा राम लक्ष्मण आदि के नामकरण का वर्णन बाल्मीकीय रामायण के बाल काण्ड मे
देखने को मिलता है । हमें अपने प्रिय जनों के नाम सार्थक रखने चाहिए सुंदर एवं
श्रेष्ठ शब्दोंका प्रभाव भी सुंदर व श्रेष्ठ होता है । शास्त्रों मे शब्द तथा अर्थ
का नित्यसंबंध माना जाता है।
पञ्च यज्ञ परम्परा-
रामायण सभ्यता पञ्च यज्ञ की परम्परा
को अनुसरण करती थी , वैदिक सभ्यता मे
ब्रह्म यज्ञ , देव यज्ञ ( अग्निहोत्र ) पितृ यज्ञ अतिथि यज्ञ
तथा बलि वैश्व देव यज्ञ को पञ्च महायज्ञ के नाम से जाना जाता है । वैसे यज्ञ शब्द
अपने आप मे बहुत विस्तारित अर्थ रखता है जैसे देव पूजा, बड़ों
का सम्मान,संगतिकरण यानि मिलकर संगठित होकर चलना तथा दान
परोपकार को भावना आदि दिव्य भाव यज्ञ के अंतर्गत समाहित होते है । यह यज्ञ ही
समस्त भुवन को एक सूत्र मे बांध कर रखनेवाला परम उपाय एवं साधन है, सर्वविध सुख समृद्धि तथा शांति प्रदान करने वाला है । अतः प्रत्येक
व्यक्ति को ये पाँच यज्ञ अवश्य करने चाहिए।
अतिथि यज्ञ
---
रामायण मे अतिथि यज्ञ के अनेक उद्दात
प्रसंग है , जो हमे गृहागत अतिथि
देवता को देव तुल्य मानसम्मान देने की शिक्षा देता है। जब राम लक्ष्मण और सीता जी
वन मे पहुंचे तो ऋषि मुनियों ने भी उन्हे विधिवत सत्कार दिया-
अतिथिं पर्णशालायां राघवं संन्यवेश्यन्
मङ्गलानि प्रयुञ्जाना मुदा परमया युताः
मूलं पुष्पं
फ़लम् सर्वमाश्रमं च महात्मनः ।।
अतिथि यज्ञ सम्पूर्ण मानव जाति मे
मानव मात्र मे आत्म दर्शन कर अभ्यास करा कर उस सर्व व्यापक सत्ता के साथ हमारा
तादात्म्य स्थापित करता है ।
पितृ यज्ञ –
रामायण के मातापिता को देवता के समान
सम्मान देने की शिक्षा देता है । राम माता कैकेयी की इच्छा और पिता दशरथ की आज्ञा
का पालन कर राज्य छोड़कर वनवास हेतु चले गए । आज की धन लोलुप हमारी सभ्यता मे थोडी
सी धनसंपति के लिए पिता के वधकरने मे भी संकोच नहीं करते । राम माता पिता की सेवा
मे सदा तत्पर रहते थे । बाल्मीकी जी राम के विषय मे कहते है कि—
धनुर्वेदे च निरतःपितु शुश्रूषणे रतः। बाल्मीकिय रामायण
बालकाण्ड18/28
बलिवैश्व यज्ञ –
बलि वैश्व देव प्राणी मात्र के प्रति
दया एवं उसके संरक्षण की शिक्षा देता है । आज की मानव सभ्यता अपनी इच्छा पूर्ति के
लिए बहुत से पशु पक्षियों एवं कीटपतंगों को मारकर अपने ही विनाश को आमंत्रित कर
रहा है । रामयणोक्त बलि वैश्व देव आज की सभ्यता को प्राणी मात्र की रक्षा का संदेश
देता है । रामायण मे वर्णित ऋषि मुनि भी नित्य बलि होम आदि यज्ञ करते थे –
बलिहोमार्चितं पुण्यं
ब्रह्मघोषनिनादितं .................
इस प्रकार रामायण की सभ्यता का अनुसरण
आधुनिक सभ्यता की आध्यात्मिक,
आधिदैविक, सामाजिक , पारिवारिक आदि
समस्याओ को दूर कर एक श्रेष्ठ सभ्यता के निर्माण मे सहयोग कर सकता है ।
पारिवारिक आदर्श –
आज की भोगवादी सभ्यता के कारण पूरे
विश्व मे परिवार विघटित हो रहे है । पश्चिमी देशों मे इसकी दुर्दशा हम देख सकते है
। रामायण मे पारिवारिक जीवन का एक उच्च आदर्श प्रतिपादित है जिससे हम सभी सुपरिचित
है । राम पिता की आज्ञा मानकर साम्राज्य छोड़कर वन मे चले जाते है, सीता राजभवन का ऐश्वर्य त्याग कर पातिव्रत्य
धर्म का पालन करने भयंकर अरण्य मे चली जाती है और लक्ष्मण भी भाई व भाभी की सेवा
मे राजसुख को त्यागकर उनके अनुगामी बनते है। जब रावण छल से सीता को हर कर ले जाता
है और श्रीराम और लक्ष्मण वन में भटक रहे थे, तभी मार्ग में उन्हें आभूषण मिलते हैं,
जो माता सीता के
थे। मगर लक्ष्मण कहते हैं कि प्रभु
मैं इन आभूषणों को नहीं पहचानता। मैं तो केवल पैर के बिछुए को
ही पहचानता हूं। वह श्रीराम को बताते हैं कि प्रभु मैंने अपनी माता के दूसरे आभूषणों को देखने की चेष्टा नहीं की केवल मां के चरणों को ही देखा है। लक्ष्मण रूपी देवर जिस घर
में रहेगा उस घर का बाल बांका भी नहीं हो सकता, सभी के दिलों से वैर नामक जहर पनपना बंद होकर आपसी प्रेम व भाईचारा बढेगा। दूसरी तरफ भरत राज सत्ता पाकर भी अपने को भाइयो के बिना
अधूरा समझता है और त्याग पूर्वक राज्य करते हुये अपने भाइयो के लौटने की प्रतीक्षा
करता है। यहाँ कैकेयी एक आदर्श माता हैं। अपने पुत्र राम पर कैकेयी के द्वारा किये गये अन्याय को भुला कर वे कैकेयी के पुत्र भरत पर उतनी ही ममता रखती हैं जितनी कि अपने पुत्र राम पर। हनुमान एक आदर्श भक्त हैं,
वे राम की सेवा के लिये अनुचर
के समान सदैव तत्पर रहते हैं। शक्तिबाण से मूर्छित लक्ष्मण को उनकी सेवा के
कारण ही प्राणदान प्राप्त होता
है। इनके पावन चरित्र का स्मरण ही क्षुद्र स्वार्थो के कारण टूटते
हमारे दाम्पत्य जीवन एवं परिवारों को बचा सकता है। रामायण हमे सही रास्ते पर ले
जाने का संदेश देती है। यह हमें बखूबी सिखाती है कि मां-बाप,
पति-पत्नी, भाई-बंधू व राजा-प्रजा के क्या
कर्तव्य हैं।
नारी की स्थिति –
किसी भी सभ्यता का मानदंड वहां की
नारियो की स्थिति होती है हम तथाकथित सभ्य लोग स्त्रियो के साथ कैसा व्यवहार करते
है; उनकी शैक्षणिक, आर्थिक,राजनैतिक स्थिति कैसी है ? इस से उस सभ्यता की
श्रेष्ठता तथा निकृष्टता का ज्ञान होता है । रामायण मे वर्णित कौशल्या, सीता, अनसूयादि उदात्त एवं पवित्र चरित्र आज की नारी को बहुत कुछ सीखा सकता है। आज की कुछ नारी पढ़ लिख कर सुंदर
वस्त्र पहन कर बाध्य रूप से सभ्य तो हो गयी किन्तु शालीनता पवित्रता त्याग आदि
गुणो से रहित होती जा रही है जिसका उसके जीवन तथा उसके परिवार मे शुख शांति का
अभाव सा होता दिखाई दे रहा है । नारियो के प्रति सम्मान की तो रामायण मे पराकाष्ठा
ही दिखाई देती है एक जटायु नामक पक्षी भी स्त्री का अपमान होते नहीं देख सकता था
उसने भी वृद्ध होते हुये अपने प्राणो की चिंता न करते हुये परम शक्तिशाली रावण के
साथ युद्ध किया। यह बताता है कि हमे स्त्री के सम्मान की रक्षा करनी चाहिए ।पर्यावरण----
आज की हमारी आधुनिक अंधी विकास परंपरा हमारे पर्यावरण को नष्ट करने मे लगी हुई है । रामायण मे नदी, सरोवर, वन, वृक्ष, वायु तथा समग्र प्रकृति को देवी तुल्य उपासना एवं व्यवहारका वर्णन है । पशु पक्षी के प्रति तो मित्र के समान व्यवहार देखने को मिलता है। क्रोञ्च के वध से करुणाद्र हृदय महर्षि बाल्मीकी के मानस सरोवर से रामायण रूपी काव्य गङ्गा का अवतरण इस भूलोक पर हुआ । अतः एव हमे आज समस्त प्रकृति का संरक्षण एवं आराधन करना चाहिए।वास्तु एवं विज्ञान ---
रामायण जहां त्यागवादी सभ्यता को दर्शाता है वहींएक श्रेष्ठ मानव सभ्यता के विभिन्न पहलुओ को भी दर्शाता है । वहां अयोध्या के वर्णन मे – श्रेष्ठ नगर निर्माण , मार्ग , उद्यान , दुर्ग , परिखा , विचित्र गृह , मणि निर्मित तोरण ,सुरक्षित सुसज्जित घर , यंत्र तोप आदि अस्त्र शस्त्र, बिना ईंधन के पुष्पक विमान आदि का वर्णन प्राप्त होता है । विश्वकर्मा निर्मित लंका पुरी , अलका पुरी, रामसेतु आदि का निर्माण आज कि हमारी सभ्यता के लिए एक उदाहरण है एवं अनुकरणीय है ।रामायण की साहित्यिक महत्ता -----
रामायण भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत
माना जाता है। यह एक ऐसा विषय है जिस
पर सैकड़ों वर्ष से लोग ग्रंथ लिखते आ रहे हैं, फिर भी अघाते नहीं हैं। यह ग्रंथ भारत की विभिन्न भाषाओं के अलावा विश्व की कई भाषाओं में लिखा गया है। साहित्यिक रचनाओं का उपजीव्य ढूंढने के लिए रामायण आज
भी समस्त भारतीय भाषाओं के लिए अक्षयकोष है। इसके साथ ही रामायण हमारी राष्ट्रीय
अस्मिता अैर सांस्कृतिक चेतना का निर्विकल्प आश्रय भी है। रामायण के अनुशीलन
मात्र से ईश्वर के प्रति श्रद्धा
और प्रेम का उदय होता है, भक्ति
उत्पन्न होती है। अंत:करण शुद्ध होता है। इसलिए यह
एक विलक्षण एवं चिरंजीवी ग्रंथ है। साहित्यिक दृष्टि से भी यह विश्व साहित्य की अनमोल रचना है। इसपर धारावाहिक और फ़िल्मों
का भी निर्माण हो चुका है। विश्व की अनेक भाषाओं में इस कथा का अनुवाद हो चुका है। रामायण
में तत्कालीन समाज के रीतिरिवाजों और शासन पद्धति
का वर्णन किया गया है। शाश्वत मूल्यों के विकास
में रामायण की महत्ता आज भी उतनी है जितनी प्राचीनकाल में थी। रामायण की
रचना मानव के जीवन के सर्वांगीण विकास और शाश्वत जीवन-मूल्यों को प्रेरित करने के उद्देश्य से की गई है। जैसे — भातृ-प्रेम, त्याग, सत्य,
प्रतिज्ञा-पालन, आज्ञा-पालन आदि।रामायण की विश्व-व्यापकता –----
रामायण की विश्व-व्यापकता तो उस समय से बन चुकी थी जब 19वीं शताब्दी में लाखों
निर्धन भारतीय विशेषरूप से अवध एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के निवासी रोजी-रोटी
की खोज में भारत से सुदूर फिजी, मॉरीशस,
त्रिनिडाड, गुयाना, सूरीनाम,
जमैका, आदि देशों में पहुंचे और अपने साथ
तुलसीदासकृत रामायण ले गए, जो हर संकट और संघर्ष में उनका सम्बल और सहयोगी बनी।प्रवासी भारतीयों की दूसरी धारा भी पूर्व और पश्चिम के अनेक देशों में गई, जो अपेक्षाकृत नवीन है—विशेषरूप से 20वीं शताब्दी की और उसमें भी 1947 के भारत विभाजन के बाद की। गत शताब्दी में ही विभाजन से पूर्व लाखों की संख्या में दक्षिण भारतीय और गुजराती क्रमशः मलाया, बर्मा, श्रीलंका तथा अफ्रीकी आदि देशों में फैल चुके थे। ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीयों का प्रवास अधिकांश इसी शताब्दी का है। इन भारतीयों के साथ भी रामायण की धारा विश्व के कोने-कोने में फैली, जिसका माध्यम चाहे रामचरित मानस रहा हो या वाल्मीकि रामायण अथवा कंबन रामायण आदि।
रामायण की तीसरी या अत्यंत सशक्त धारा पूर्व और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में गई, जो इन देशों की संस्कृति की अभिन्न अंग बनकर छा गई। चीन में भी जातक कथाओं के माध्यम से यह धारा पहुंच गई। इस धारा का प्रभाव इतना शक्तिशाली था कि वहां के कवियों ने अपने देशों की भाषाओं में रामायणें रचीं और उनमें स्थानीय रंग भर दिए। इस धारा का और अधिक प्रवाह यह हुआ कि इन देशों में रामायण में वर्णित नगरों, नदियों, व्यक्तियों आदि के नाम रखे जाने लगे। फलस्वरूप कालान्तर में स्थानीय लोग यह मानने लगे कि रामायण की घटनाएं उनके देश में घटित हुईं। इन रामायणों में घटनाओं के निर्वाह में भले ही अनेक अंतर है, किंतु स्रोत वाल्मीकि रामायण ही मानी जाती है। कुछ रामायणों में विभिन्न प्रसंगों का निर्वाह रामकथा के विद्वानों या विज्ञ पाठकों को हास्यास्पद भी लग सकता है। यहां का रामायण धर्म और अध्यात्म से अछूती है, किंतु संस्कृति से पूरी तरह जुड़ी है। इसलिए भारत के अतिरिक्त एशियाई देशों की रामायण धारा को हम सांस्कृतिक धारा कह सकते हैं।
रामायण की इस धारा की कुछ झलक दक्षिण-पूर्व एशिया में भी मिलती है। और सच बात तो यह है कि विश्व के इसी भाग ने राम और उनके देश को भली भांति समझा भी तथा उनकी महत्ता भी स्वाकीर की। थाईलैंड के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में राम पूर्णतः समरस हैं। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस देश में कहीं-कहीं राम और बुद्ध के बीच कोई पृथकता की रेखा नहीं है। यहां के जीवन में दोनों का सहअस्तित्व है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बैंकाक स्थित शाही बुद्ध मंदिर है, जिसमें नीलम की मूर्ति हैं। यह मंदिर पूरे देश में बहुत प्रसिद्ध है तथा दूर-दूर से लोग इसके दर्शनार्थ आते हैं। मंदिर की दीवारों पर संपूर्ण रामकथा चित्रित है। इस देश की अपनी रामायण है—रामकियेन, जिसके रचयिता नरेश राम प्रथम थे। उन्हीं के वंश के नरेश राम नवम् वर्तमान में देश के शासक हैं।
थाईलैंड में राम के दर्शन एक स्थान पर अपने भव्यरूप में होते हैं और वह है बैंकाक स्थिति राष्ट्रीय संग्रहालय। इस संग्रहाल्य में जैसे ही आप प्रवेश करेंगे धनुर्धारी राम के दर्शन होंगे। अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि थाईलैंड में एक अयोध्या है और लवपुरी (लोपबुरी) भी। अयोध्या स्थित संग्रहालय की एक अधीक्षिका ने मुझे बताया था कि थाईवासियों का विश्वास है कि रामायण की घटनाएँ उनके देश में ही घटीं। थाई जीवन में राम की लोक प्रियता की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसके प्रमाण यहां के शास्त्रीय नृत्य हैं, जिनमें रामकथा के दर्जनों प्रसंग प्रदर्शित किए जाते हैं। वे नृत्य आज भी थाईलैंड में लोकप्रिय हैं।
कम्बोडिया में राम के महत्व का जीता-जागता सबूत है अंगकोरवाट, जो दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक है। यहां बुद्ध शिव, विष्णु, राम आदि सभी भारतीय देवों की मूर्तियां पाई जाती हैं। इसका निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में सूर्यवर्मन द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में कई भाग हैं—अंगकोरवाट, अंगकोर थाम, बेयोन आदि। अंगकोरवाट में रामकथा के अनेक प्रसंग दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। जैसे सीता की अग्नि परीक्षा, अशोक वाटिका में रामदूत हनुमान का आगमन, लंका में राम-रावण युद्ध, वालि-सुग्रीव युद्ध आदि यहां की रामायण का नाम रामकेर है, जो थाई रामायण से बहुत मिलती-जुलती है। इस प्रकार लाओस और बर्मा आदि बौद्ध देशों के जीवन में भी रामकथा का महत्त्व है, जो नृत्य नाटकों और छायाचित्रों के माध्यम से देखा जा सकता है। यहां के बौद्ध मंदिरों में इनके प्रदर्शन होते हैं।
और यहाँ इंडोनेशिया में भी चाहे वाली का हिंदू हो या जावा-सुमात्रा का मुसलमान, दोनों ही राम को अपना राष्ट्रीय महापुरुष और राम साहित्य तथा राम संबंधी ऐतिहासिक अवशेषों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर समझता है। जोगजाकार्ता से लगभग 15 मील की दूरी पर स्थित प्राम्बनन का मंदिर इस बात का साक्षी है, जिसकी प्रस्तर भित्तियों पर संपूर्ण रामकथा उत्कीर्ण है।
वाली में रामलीला या रामकथा से संबंधित नृत्य-नाटिकाओं की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. इस द्वीप का वातावरण पूर्णतः संस्कृतिमय है। इंडोयेशिया की प्रसिद्ध रामायण का नाम रामायण काकविन है। मलेशिया में रामायण मनोरंजन का अच्छा माध्यम है। यहां चमड़े की पुतलियों द्वारा रात्रि में रामायण के प्रसंग दिखाए जाते हैं। इस देश की रामायण का नाम हेकायत सेरीरामा है जिसमें राम को विष्णु का अवतार माना गया है। यद्यपि इस पर इस्लाम का प्रभाव भी स्पष्ट है। सिंहल द्वीप में कवि नरेशकुमार दास ने छठी शताब्दी में जानकी हरण काव्य की रचना की थी। यह संस्कृत ग्रंथ है। बाद में इसका सिंहली भाषा में अनुवाद हुआ। आधुनिक काल में जॉन डी.सल्वा ने रामायण का रूपान्तरण किया।
देवभाषा संस्कृत को पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में स्थान मिलने के कारण वाल्मीकि रामायण से इनका परिचय शताब्दियों पूर्व हो गया था किंतु रामचरित मानस( तुलसी दास कृत रामायण) के प्रति पश्चिमी देशों का आश्चर्यजनक रूक्षान मुख्यतः गत शताब्दी से ही शुरू हुआ है, जिसका अनुवाद अभी तक लगभग सभी महत्त्वपूर्ण विश्वभाषाओं में हो गया है और अभी हो रहा है। फ्रांसीसी विद्वान गासां दतासी ने 1839 में रामचरित् मानस के सुंदर कांड का अनुवाद किया। फ्रांसीसी भाषा में मानस के अनुवाद की धारा पेरिस विश्विविद्यालय के श्री वादि विलन ने आगे बढाई।
अंग्रेजी में तुलसीदास कृत रामायण का पद्यानुवाद पादरी एटकिंस ने किया जो बहुत लोकप्रिय है। इसका प्रकाशन हिंदुस्तान टाइम्स में देवदास गांधी ने करवाया था। इसी प्रकार के अनुवाद जर्मनी सोवियत संघ आदि में हुए। रूसी भाषा में मानस का अनुवाद करके अलेक्साई वारान्निकोव ने भारत-रूस की सांस्कृ़तिक मैत्री की सबसे शक्तिशाली आधारशिला रखी। उनकी समाधि पर मानस की अर्द्धाली ‘भलो भलाहिह पै लहै’ लिखी है, जो उनके गांव कापोरोव में स्थित है। यह सेट पीटर्सबर्ग के उत्तर में है। चीन में वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस दोनों का पद्यानुवाद हो चुका है। डच, जर्मन, स्पेनिश, जापानी आदि भाषाओं में भी रामायण के अनुवाद हुए हैं।
शोध-ग्रंथ के माध्यम से भी पश्चिमी देशों में यह धारा आगे बढ़ी है। माना जाता है कि हिंदी साहित्य में सर्वप्रथम इटली निवासी डॉ. टेसीटोरी ने लिखा और फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में 1910 में उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी गई। विषय था—मानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन। दूसरा शोधग्रंथ लंदन विश्वविद्यालय में 1918 में जे.एन. कार्पेण्टर ने प्रस्तुत किया। विषय था—थियोलॉजी ऑफ तुलसीदास।
संतोष का विषय है कि रामायण की यह विश्वव्यापी भूमिका प्रकाश में आने लगी है और इसमें अनेक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक धाराओं के साथ अंतराष्ट्रीय रामायण सम्मेलनों की एक धारा की बी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसके अंतर्गत अब तक 12 देशों में 17 से ज्यादा रामायण सम्मेलन हो चुके हैं। भारत से शुरू होकर कई विश्व-परिक्रमाएं कर चुकी यह सम्मेलन श्रृंखला एक विश्व सांस्कृति मंच के रूप में उभरकर आई है।
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