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गुरुवार, 7 मई 2020

7वें निर्वाण दिवस पर अनंतबोध चैतन्य की हार्दिक श्रद्धांजलि


मेरे प्रिय गुरुजी, आचार्य महामंडलेश्वर निर्वाण पीठाधीश्वर स्वामी विश्वदेवानंद जी, जिन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को भगवती त्रिपुरसुंदरी को समर्पित किया और भागवती कृपा से परिपूर्ण रहे। उन्होंने एक दिव्य श्री यंत्र मंदिर का हरिद्वार के कनखल स्थित विश्वकल्याण साधना यतन आश्रम में निर्माण करवाया। जो कि शताब्दियों तक उनकी कीर्ति पताका और भगवती की साधना का एक केंद्र रहेगा।
उन्होंने 7 मई 2013 को अपने मानव रूप को ब्रह्मांड के साथ एक होने के लिए छोड़ दिया और सैकड़ों अनुयायियों के लिए एक शून्य भी छोड़ दिया जो पूरा नहीं हो सकता है।
वह सर्वव्यापी है, हाँ ... लेकिन उसकी भौतिक उपस्थिति अपूरणीय है। वह कई वर्षों से हजारों लोगों को मुफ्त सेवाएं प्रदान कर रहा था। वह एक दयालु, प्यार और शुद्ध आत्मा थे।
हमारे गुरुदेव स्वामी विश्वेदेवानंद जी, चौथे निर्वाण पीठाधीश्वर को उनके 7वें निर्वाण दिवस पर हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं जिन्होंने मुझे और दुनिया में लोगों को मदद और दिशा प्रदान की है। वह एक द्रष्टा और दूरदर्शी, वे हिंदुत्व के एक प्रमुख विचारक थे।
"गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते । अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते"
भावार्थ :
'गु'कार याने अंधकार, और 'रु'कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है ।
"गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः" ॥
गुरु ब्रह्मा की तरह है-निर्माता। वह शिष्यों के मन में ज्ञान का सृजन या विकास करता है। गुरु विष्णु की तरह है - संरक्षक। वह शिष्यों में ज्ञान को बनाए रखता है या संरक्षित करता है। गुरु शिव के समान है-विनाशक। गुरु शिष्यों के मन से अज्ञानता के अंधेरे को दूर करता है। गुरु इसलिए हम सभी के भीतर परा ब्रह्म (सर्वोच्च सार) की अभिव्यक्ति है। मैं अपने प्रणाम गुरु को अर्पित करता हूं।
गुरु आकांक्षी का मार्गदर्शन करने के लिए व्यक्तिगत रूप में प्रकट होने वाला भगवान है। भगवान का अनुग्रह गुरु का रूप लेता है। गुरु को देखना भगवान को देखना है। गुरु भगवान के साथ एकजुट होता है, दूसरों में भक्ति को प्रेरित करता है और उनकी उपस्थिति सभी को शुद्ध करती है।
गुरु मोक्ष-द्वार (मुक्ति का द्वार) है। लेकिन यह आकांक्षी है जिसे इसके माध्यम से प्रवेश करना है। गुरु एक सहायता है, लेकिन साधना का वास्तविक कार्य - साधना आकांक्षी पर गिरती है। ताली बजाने में दो हाथ लगते हैं।
आचार्य महामंडलेश्वर निर्वाण पीठाधीश्वर स्वामी विश्वदेवानंदजी ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर स्वामी अतुलानंदजी के शिष्य थे जिनकी वंशावली आदि शंकराचार्य जी से मिलती है जिन्होंने अद्वैत वेदांत की शिक्षा पूरे विश्व को दी।
श्री अनंतबोध चैतन्य, स्वामी विश्वदेवानंद योग वेदांत आश्रम भक्त परिवार, लिथुआनिया।

रविवार, 29 मई 2011

अनंतबोध चैतन्य द्वारा लिया गया गुरु जी का परिचय





परम पूज्य आचार्य महामण्डलेश्वर निर्वाणपीठाधीश्वर श्री  श्री १००८ स्वामी विश्वदेवानन्द जी के साथ वार्तालाप के कुछ अंश ---
महाराज श्री से जन्म समय तथा जन्म स्थान के  बारे मे पूछने पर महाराज श्री का बडा सारगर्भित उत्तर-
पूज्य महाराज  जी फ़रमाते हैं कि साधु का परिचय जन्म के साथ नहीं होता ,साधु अपनी मृत्यु से परिचय  देता हैं। उसका कर्त्तृत्व ही समाज के लिये प्रेरक होता हैं।  वह अपनी समसायमिक व्यवस्था के साथ आने वाली भविष्य की पीढियों के प्रति भी कर्तव्यबोध तथा प्रयोग के द्वारा जीवन के महत् उद्देश्यों व मूल्यों की विरासत प्रस्तुत करता हैं। साधु अपनी मृत्यु के साथ  भी कुछ दे जाता है।यही कारण है कि महात्मा की मृत्युतिथि महोत्सव के रुप मे देखी जाती है, जिससे प्रेरणा लेकर जीवन को उत्सव की भांति जी सके। पुनः इसी प्रश्न के सन्दर्भ में महाराज श्री ने कहा कि जगन्मिथ्यात्त्व के दर्शन में समाहित हुई  आत्मचेतना  स्वयं के परम लक्ष्य ब्रह्मभाव में स्थिति के साथ देह और देह सम्बन्धी व्यवस्थाओं  को लौकिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में गौण मानती हुई उस पर ज्यादा चर्चा करने और सुनने में उत्सुक नहीं होती।
यथार्थ जगत् की अपनी एक सत्ता है किन्तु वह बाधित है।जीवन की अनिवार्यता तो उसमें है लेकिन सहज व अन्तिम स्थिति नहीं है। अतःएव उसे गौण रुप में देखते हुए परम लक्ष्य मे प्रतिष्ठित  होना ही दृष्टि का प्रधान  विषय होता है। यही कारण है कि दैहिक व्यस्थाओं मे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष  की सन्निष्ठा महत्त्व का दर्शन नहीं करती।यही दृष्टि का आधारभूत दर्शन है, जो महापुरुष को सामान्य लौकिक व्यक्ति से अलग करता है । लोक में रह कर भी वह अलौकिक रहता हैं। साधुता के इसी मर्म के साथ साधु सही अर्थों मे साधु होता है एवं साधुता की साधना सिद्ध अन्तिम मञ्जिल तक पहुंचता  है। दैहिक तल पर  कर्त्तृत्व और इस तल से जुड़े हुए वह जन्मादि को ज्यादा प्रशांसित नहीं करता, इस अर्थ मे जयंती आदि के कार्यक्रम भी उसे आकर्षित नहीं कर पाते, दैहिक परिचयों के भूमि से वह अलग होता है बाध्यता है कि वह जगत मे होता है, क्योकि यह ईश्वरीय  व्यवस्था है । सुख-दुख की विभिन्न परिस्थितियों में समता बोध के साथ जीता हुआ सब कुछ सहज से अपनाता हुआ, सत्य ब्रह्म की उर्ध्व   भूमि में समासीन  रहता है। इस अर्थ में दैहिक परिचय उपेक्षणीय मानता है। भक्त, अपनी आस्था से कुछ भी करें श्रध्दा की भाषा और  भावना में किसी भी स्तर से मान की भूमिका  बनायें  लेकिन महापुरूष अमान और उन्मन ही रहते हैं।
सन्देश - आत्मस्थिति अर्थात् ब्रह्मात्मैक्यस्थिति का बोध यही जीवन का परम लक्ष्य  है। जिस लक्ष्य का सन्देश वेदवेदान्त विभिन्न-घोषणाओं के द्वारा देते चले आ रहे  है प्राप्त गुरुज्ञान से उसकी अनुभुति तथा स्मृति बनाये रखते हुये अपनी प्राप्त क्षमता  तथा योग्यता के साथ  ईश्वरीय चेतना के प्रकाश में  व्यक्ति सत्कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ सहज दोषों से अपने को अलग रखने का दृढ संकल्प रखें। सत्य एवं सदाचार का अनुसरण करें ।
संकलनकर्ता --- ब्रह्मचारी अनन्तबोध चैतन्य