बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

--- आत्मा निरूपण ---


       

--- आत्मा निरूपण ---

            ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
               तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
                  ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!
(हे परमात्मन् आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ- साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् त्रिविध ताप की शान्ति हो। आध्यात्मिक ताप (मन के दु:ख) की, अधिभौतिक ताप (दुष्ट जन और हिंसक प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो।)
Aum! May Brahman (the Supreme Being) protect us both (The Guru and Shishya), May He give enjoyment us! May we attain strength! May our study be illuminative! May there be no jealous among us! 
आत्मा या आत्मन् पद भारतीयदर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों (विचार) में से एक है। यह उपनिषदों के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में आता है। जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से किया गया है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाश नहीं होता। आत्मा का निरूपण श्रीमद्भगवदगीता और कठोपनिषद में किया गया है।
जो विवेकशील है, जिसने मन सहित अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो सदैव पवित्र भावों को धारण करने वाला है, वही उस आत्म-तत्त्व को जान पाता है; क्योंकि
'एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रय्या बुद्धिया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥' 1/3/12॥ अर्थात समस्त प्राणियों में छिपा हुआ यह आत्मतत्त्व प्रकाशित नहीं होता, वरन् यह सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले तत्त्वदर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि से दिखाई देता है।
जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा ---
सूत्रकाल में ईश्‍वरवाद अत्‍यन्‍त क्षीण प्रायः था। भाष्‍यकारों ने ही ईश्‍वर वाद की स्‍थापना पर विशेष बल दिया। आत्‍मा को ही दो भागों में विभाजित कर दिया गया- जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा।
ज्ञानाधिकरणमात्‍मा । सः द्विविधः जीवात्‍मा परमात्‍मा चेति।'1
इस दृष्‍टि से आत्‍मा ही केन्‍द्र बिन्‍दु है जिस पर आगे चलकर परमात्‍मा का भव्‍य प्रासाद निर्मित किया गया।
आत्‍मा को ही बह्म रूप में स्‍वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद्‌ युग में मिलती है। प्रज्ञाने ब्रह्म', ‘अहं ब्रह्मास्‍मि', ‘तत्‍वमसि', ‘अयमात्‍मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्‍य इसके प्रमाण है। ब्रह्म प्रकृष्‍ट ज्ञान स्‍वरूप है। यही लक्षण आत्‍मा का है। मैं ब्रह्म हूँ', ‘तू ब्रह्म ही है; ‘मेरी आत्‍मा ही ब्रह्म है' आदि वाक्‍यों में आत्‍मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं। आत्‍मा एवं परमात्‍मा का भेद तात्‍विक नहीं है; भाषिक है। समुद्र के किनारे खड़े होकर जब हम असीम एवं अथाह जलराशि को निहारते हैं तो हम उसे समुद्र भी कह सकते हैं तथा अनन्‍त एवं असंख्‍य जल की बूँदों का समूह भी कह सकते हैं। स्‍वभाव की दृष्‍टि से सभी जीव समान हैं। भाषिक दृष्‍टि से सर्व-जीव-समता की समष्‍टिगत सत्ता कोपरमात्‍मा' वाचक से अभिहित किया जा सकता है। आत्‍मा एवं परमात्‍मा का भेद तात्‍विक नहीं है; भाषिक है।" परमात्मा इस जीवात्मा के हृदय-रूपी गुफ़ा में अणु से भी अतिसूक्ष्म और महान से भी अतिमहान रूप में विराजमान हैं। निष्काम कर्म करने वाला तथा शोक-रहित कोई विरला साधक ही, परमात्मा को कृपा से उसे देख पाता है। दुष्कर्मों से युक्त, इन्द्रियासक्त और सांसारिक मोह में फंसा ज्ञानी व्यक्ति भी आत्मतत्त्व को नहीं जान सकता।
आत्मा और परमात्‍मा दोनो अलग-अलग है, आत्मा रचना है और परमात्मा उसके रचयिता है इस आधार से दोनो मे पिता-पुत्र का नाता हो जाता है दोनो का स्वरूप भी एक जैसा ही है. जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा दोनो के गुण भी समान ही है। जीवात्मा जन्म-मरण में आती है परमात्मा जन्म- मरण में  नही आते । लेकिन जीवात्मा को  ८४ लाख योनियों में  उसके कर्मो के अनुसार जन्म लेना पडता है।
'योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥2/2/7'
अर्थात अपने-अपने कर्म और शास्त्राध्ययन के अनुसार प्राप्त भावों के कारण कुछ जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त करते हैं और अन्य अपने-अपने कर्मानुसार जड़ योनियों, अर्थात वृक्ष, लता, पर्वत आदि को प्राप्त करते हैं।
आत्मा का स्वरुप --
सृष्टि का मूल तत्व आत्मा है  जिस प्रकार सूर्य ब्रह्माण्ड को ज्योर्तिमय कर देता वैसे ही यह आत्मा  क्षेत्र ज्योति भर देता है। आत्मा-जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित करता है अर्थात सूर्य के कारण संसार है , जीवन है आदि उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।
'एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रय्या बुद्धिया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥' 1/3/12
अर्थात समस्त प्राणियों में छिपा हुआ यह आत्मतत्त्व प्रकाशित नहीं होता, वरन् यह सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले तत्त्वदर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि से दिखाई देता है।
'न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥' 1/2/18
अर्थात यह नित्य ज्ञान-स्वरूप आत्मा न तो उत्पन्न होता है और न मृत्यु को ही प्राप्त होता है। यह आत्मा न तो किसी अन्य के द्वारा जन्म लेता है और न कोई इससे उत्पन्न होता है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत औ क्षय तथा वृद्धि से रहित है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह विनष्ट नहीं होता।
ईश्‍वर ---
अधिकांश दर्शन एवं धर्म ईश्‍वर' को सृष्‍टि एवं जीवों को उत्‍पन्‍न करने वाला, उनका पालन करने वाला एवं उनके भाग्‍य का निर्धारण करने वाला मानते हैं। कर्ता/पालनकर्ता /संहारकर्ता के रूप में परम शक्‍ति' की अवधारणा अधिकांश धर्मों में है। मध्‍ययुगीन चेतना के केन्‍द्र में ईश्‍वर' प्रतिष्‍ठित है। परमशक्‍ति' के कहीं अवतार के रूप में, कहीं पुत्र के रूप में, कहीं प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्‍ठित है।
स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमसनाविरं शुद्धमपापविद्वम् |
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ||8||

(वह ईश्वर सर्वत्र व्यापक है,जगदुत्पादक,शरीर रहित,शारीरिक विकार रहित,नाड़ी और नस के बन्धन से रहित,पवित्र,पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी,ज्ञानी,सर्वोपरि वर्तमान,स्वयंसिद्ध,अनादि,प्रजा (जीव) के लिए ठीक ठीक कर्म फल का विधान करता है|)

(वह ईश्वर सर्वत्र व्यापक है,जगदुत्पादक,शरीर रहित,शारीरिक विकार रहित,नाड़ी और नस के बन्धन से रहित,पवित्र,पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी,ज्ञानी,सर्वोपरि वर्तमान,स्वयंसिद्ध,अनादि,प्रजा (जीव) के लिए ठीक ठीक कर्म फल का विधान करता है|)
He (The Self) is all pervasive, like space (Atman is preset everywhere), resplendent (luminous as the sun), bodiless, spotless, without nerves, pure, untouched by sin. He is the knower of all, omniscient, self-existent; he is the one who has organized all the materiel objects to be available for eternal years.
यहाँ यह द्रष्‍टव्‍य है कि भारतीय आत्‍मवादी दर्शनों के अनुयायी साधकों ने भी मध्‍य युग में ईश्‍वर कर्तृत्‍व' को सिद्धान्‍त रूप में अथवा लौकिक व्‍यवहार में मान्‍यता प्रदान की। जिन्‍होंने आत्‍मा को अनादि-निधन, अविनाशी और अक्षय माना उन्‍होंने भी मध्‍य युग में ईश्‍वर कर्तृत्‍व में आस्‍था व्‍यक्‍त की। ईश्‍वर की भक्‍ति, स्‍तुति एवं जयगान को ही धर्म-आचरण का पर्याय मान लिया गया। परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर किया है, जिससे जीवात्मा बाहरी पदार्थों को देखता है और सांसारिक भोग-विलास में ही उसका ध्यान रमा रहता है। वह अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता, किन्तु मोक्ष की इच्छा रखने वाला साधक अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अन्तरात्मा को देखता है। यह अन्तरात्मा ही ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग है। जहां से सूर्यदेव उदित होते हैं और जहां तक जाकर अस्त होते हैं, वहां तक समस्त देव शक्तियां विराजमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं लांघ पाता। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को जानने के लिए सत्य और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है।
पातंजलि योग सूत्र के अनुसार क्लेश कर्म विपाक आशय से रहित पुरुष विशेष ही ईश्वर है। 
अवश्यंभावी मृत्यु ----
ऐसा माना जाता है कि मानव शरीर नश्वर है, जिसने जन्म लिया है उसे एक ना एक दिन अपने प्राण त्यागने ही पड़ते हैं। भले ही मनुष्य या कोई अन्य जीवित प्राणी सौ वर्ष या उससे भी अधिक क्यों ना जी ले लेकिन अंत में उसे अपना शरीर छोड़कर व्यष्टि से समष्टि में विलीन होना पडता है। यद्यपि इस सच से हम सभी भली-भांति परिचित हैं लेकिन मृत्यु के पश्चात जब शव को अंतिम विदाई दे दी जाती है।
गीता में भी कहा गया है की “जातस्य हि धुर्वो मृत्यु ध्रुवं हि जन्म मृतस्य च।  
जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म भी निश्चित होता है। अतः एव मृत्यु को अवश्यंभावी माना गया है।
मृत्यु के पश्चात ----
कठोपनिषद में एक कथा है जिसमें यम (मृत्यु के देवता) और नचिकेता (उद्दालक मुनि के पुत्र) के मध्य (शरीर की) 'मृत्यु के बाद जीवन' के विषय पर एक संवाद है। कठोपनिषद के अनुसार उस चैतन्य और अजन्मा परब्रह्म का नगर ग्यारह द्वारों वाला है- दो नेत्र, दो कान, दो नासिका रन्ध्र, एक मुख, नाभि, गुदा, जननेन्द्रिय और ब्रह्मरन्ध्र। ये सभी द्वार शरीर में स्थित हैं। कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर, जो साधक द्वारों के मोह से सर्वथा अलिप्त रहकर नगर में प्रवेश करता है, वह निश्चय ही परमात्मा तक पहुचता हैं शरीर में स्थित एक देह से दूसरी देह में गमन करने के स्वभाव वाला यह जीवात्मा, जब मृत्यु के उपरान्त दूसरे शरीर में चला जाता है, तब कुछ भी शेष नहीं रहता। यह गमनशील तत्त्व ही ब्रह्म है। यही जीवन का आधार है। प्राण और अपान इसी के आश्रय में रहते हैं। अब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मृत्यु के उपरान्त आत्मा का क्या होता है, अर्थात वह कहां चला जाता है।'यमराज ने आगे कहा-
'योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥2/2/7
अर्थात अपने-अपने कर्म और शास्त्राध्ययन के अनुसार प्राप्त भावों के कारण कुछ जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त करते हैं और अन्य अपने-अपने कर्मानुसार जड़ योनियों, अर्थात वृक्ष, लता, पर्वत आदि को प्राप्त करते हैं।
समस्त जीवों के कर्मानुसार उनकी भोग-व्यवस्था करने वाला परमपुरुष परमात्मा, सबके सो जाने के उपरान्त भी जागता रहता है। वही विशुद्ध तत्त्व परब्रह्म अविनाशी कहलाता है, जिसे कोई लांघ नहीं सकता। समस्त लोक उसी का आश्रय ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नितत्त्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके प्रत्येक आधारभूत वस्तु के अनुरूप हो जाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों में स्थित अन्तरात्मा(ब्रह्म) एक होने पर भी अनेक रूपों में प्रतिभासित होता है। वही भीतर है और वही बाहर है।
शरीर त्यागने के बाद कहां जाती है आत्मा ? इस विषय में गरूड़ पुराण जो मरने के पश्चात आत्मा के साथ होने वाले व्यवहार की व्याख्या करता है उसके अनुसार जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो उसे दो यमदूत लेने आते हैंमानव अपने जीवन में जो कर्म करता है यमदूत उसे उसके अनुसार अपने साथ ले जाते हैं अगर मरने वाला सज्जन है, पुण्यात्मा है तो उसके प्राण निकलने में कोई पीड़ा नहीं होती है लेकिन अगर वो दुराचारी या पापी हो तो उसे पीड़ा सहनी पड़ती है गरूड़ पुराण में यह उल्लेख भी मिलता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को यमदूत केवल 24 घंटों के लिए ही ले जाते हैं और इन 24 घंटों के दौरान आत्मा दिखाया जाता है कि उसने कितने पाप और कितने पुण्य किए हैं इसके बाद आत्मा को फिर उसी घर में छोड़ दिया जाता है जहां उसने शरीर का त्याग किया था. इसके बाद 13 दिन के उत्तर कार्यों तक वह वहीं रहता है13 दिन बाद वह फिर यमलोक की यात्रा करता है
पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्याग कर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं. उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है. ये तीन मार्ग हैं अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग. अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है.
मोक्ष –
कठोपनिषद में यमराज नचिकेता को कहते है कि हे नचिकेता ! मृत्यु से पूर्व, जो व्यक्ति ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह जीव समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है, अन्यथा विभिन्न योनियों में भटकता हुआ अपने कर्मों का फल प्राप्त करता रहता है। यह अन्त:करण विशुद्ध दर्पण के समान है। इसमें ही ब्रह्म के दर्शन किये जा सकते हैं। जब मन के साथ सभी इन्द्रियां आत्मतत्त्व में लीन हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टारहित हो जाती हे, तब इसे जीव की 'परमगति' कहा जाता है। इन्द्रियों का संयम करके आत्मा में लीन होना ही 'योग' है। हृदय की समस्त ग्रन्थियों के खुल जाने से मरणधर्मा मनुष्य अमृत्व, अर्थात 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।' ऐसी विद्या को जानकर नचिकेता बन्धनमुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो गया।
भारतीयदर्शन में नश्वरता को दु:ख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:ख मय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलत: सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है। अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है।
यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को "विदेहमुक्ति" कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनंद की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनंद में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, अनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है, और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्यास्मि" की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदांत में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है।
उपसंहार ---
मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही आत्मा को जानना होना चाहिएसनातन धर्म में शास्त्रों के अनुसार ‘आत्मा वारे श्रोतव्या, मन्तव्या निदिध्यासितव्या’ आत्मा का ही श्रवण करना चाहिए, मनन करना चाहिए तथा निदिध्यासन करना  चाहिए यही उपनिषदों का सन्देश है । अर्थात आत्म तत्त्व का श्रवण और हमारी आत्मा कि आवाज दोनों को हि सुनना चाहिए । आज के व्यस्त जीवन में हमें आत्मानुसंधान के लिए भी समय निकालना चाहिए
              ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
                 पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
                        ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (जगत) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण (परब्रह्म) से ही पूर्ण (जगत) की उत्पत्ति होती है। तथा पूर्ण (जगत) का पूर्णत्व लेकर (अपने में समाहित करके) पूर्ण (परब्रह्म) ही शेष रहता है। त्रिविध ताप (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक) की शांति हो।
    ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
Om! That (Karana Brahma) is a complete whole. This (Karya Brahma) too is a complete whole. From the complete whole only, the (other) complete whole rose. Even after removing the complete whole from the (other) complete whole, still the complete whole remains unaltered and undi
sturbed.
                    OM! PEACE! PEACE! PEACE! 
Written by :- -   Anantbodh Chaitanya 
                 Shri Yantra Mandir, Daksh Road
                 Kankhal, Haridwar, Uttrakhanda ( India)
                    


                            














सोमवार, 22 जुलाई 2013

Guru Purnima ( गुरु पूर्णिमा )

ॐ नमो नारायणाय
   सत्संग भवन,कोलकता में  पूज्य चरणों के सानिध्य में अनंतबोध
                  


                 काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे 
                 श्रीविश्वदेवसंज्ञाय वेदांत गुरवे  नमः ।।
बड़े दुःख के साथ सूचित किया जाता है कि इस बार की गुरु पूर्णिमा गुरु जी के पार्थिव शरीर के साथ न मना कर अपितु समष्टि में व्याप्त गुरु तत्त्व के साथ मनाई जाएगीहमारे पूज्य गुरुदेव ०७ मई २०१३ को व्यष्टि से समष्टि में समाहित हो गए। वो हमारे गुरु ही नहीं अपितु प्राण धन ही थे । आज गुरु जी के न रहने से उनकी महिमा समझ में आ रही इसीलिए मै अनंतबोध बहुत ही पुराने समय से चली आ रही गुरु महिमा को शब्दों में नही लिख पा रहा हु । संत कबीर भी कहते हैं कि
             सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज। 
             सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुंण लिखा न जाए।।
             यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। 
             शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
             गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने गुरु को सिर्फ याद करने का प्रयास है। गुरू की महिमा बताना तो सूरज को दीपक दिखाने के समान है।             
              अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुर्यो
             भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित्।।
             विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थं
             सुगति कुगति मार्गौ पुण्यपापे व्यनक्ति।
             अर्थात् : सच्चा गुरु हमारे मिथ्या बोध को नष्ट कर देता है और हमें शास्त्रों के सच्चे अर्थ का बोध करा देता है। सुगति और कुगति के मार्गों तथा पुण्य और पाप का भेद प्रकट कर देता है, कर्तव्य और अकर्तव्य का भेद समझा देता है, उसके बिना और कोई भी हमें संसार सागर से पार नहीं कर सकता।
             गुरू शिष्य का संबन्ध सेतु के समान होता है। गुरू की कृपा से शिष्य के लक्ष्य का मार्ग आसान होता है। गुरु हमारे अंतर मन को आहत किये बिना हमें सभ्य जीवन जीने योग्य बनाते हैं। दुनिया को देखने का नज़रिया गुरू की कृपा से मिलता है।  
             गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते ।
             अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।।- श्री गुरुगीता
              अर्थ :गुअर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं रुअर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान । इस बातमें कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञानके अंधकारको दूर करते हैं । इससे ज्ञात होगा कि साधकके जीवनमें गुरुका महत्त्व अनन्य है । इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधकका प्रथम ध्येय है । गुरुप्राप्तिसे ही ईश्वरप्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरुप्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है, ईश्वरप्राप्ति अर्थात मोक्षप्राप्ति- मोक्षप्राप्ति अर्थात निरंतर आनंदावस्था । गुरु हमें इस अवस्थातक पहुंचाते हैं । शिष्यको जीवनमुक्त करनेवाले गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है । गुरु शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की जा सकती है।
जैसे -१. 'गिरति अज्ञानान्धकारम् इति गुरु:'
अर्थात: जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है।
२ . 'गरति सिञ्चति कर्णयोज्र्ञानामृतम् इति गुरु:'
अर्थात: जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करता है, वह गुरु है।
मंत्रदाता को भी गुरु कहा गया है, वस्तुत: मंत्र ही परम गुरु है। गुरु के उपकारों से जिसका हृदय भर आया ऐसे किसी कृतज्ञ मानव ने कहा है। आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष को जिसने गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया हो उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय ? गुरु के बिना तो ज्ञान पाना असंभव ही है। कहते हैं :
                       ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान । 
                        ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ॥ 
गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है इसीलिए आषाढ़ की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में माना जाता है ॥ 
                             ये तो बात रही गुरु महिमा की अब बात करते है शिष्यों के गुरु के प्रति कर्तव्यों की, कुम्भ मेला से पहले पूज्य गुरु जी ने मुझे एक परम दिव्य तपस्थली के दर्शन करवाए और मुझे आज्ञा की कि यहां कुछ निर्माण कार्य होना चाहिए | ये पूज्य गुरुदेव की बचपन की तपोभूमि रही दिव्य भूमि थी | यहां पर ही उनके संन्यास जीवन का आरम्भ हुआ था और परम विरक्त संत परम पूज्य स्वामी सदानंद परम हंस जी ने यहां वर्षो तपस्या की और इस भूमि को तीर्थ बना दिया|
अभी ही कुछ दिन पहले मै यहाँ पुनः आया और मेरे साथ गुरुदेव श्री के परम भक्त तिवारी परिवार के सिरमौर श्री लक्ष्मी कान्त जी तिवारी और श्री कान्त जी तिवारी भी इस पवित्र भूमि का दर्शन करने आये और गुरु जी के संकल्प को पूरा करने का दृढ निश्चय दिखाया तथा यहां विराजमान पूज्य गुरुदेव श्री के साधना काल के सखा और गुरु भाई स्वामी सत्चिदानन्द परमहंस जी से मिलकर यहां गुरु जी की इच्छानुसार निर्माण कार्य के लिए धन राशी अर्पित की |
                          
      पूज्य गुरु देव श्री के बहुत सारे भक्त और शिष्य थे जो गुरु जी को बहुत मानते थे लेकिन उनमे तिवारी परिवार एक ऐसा परिवार जिसको गुरु जी भी बहुत मानते थे तथा इस परिवार के ऊपर हमारे पूर्वजों का भी आशीर्वाद हमेशा रहा है |
यह तपोभूमि परमहंस कुटिया के नाम से जानी जाती है और सीतापुर जिले के दरियापुर गाँव  में स्थित है, यहाँ से नैमिषारण्य तीर्थ भी ज्यादा दूर नहीं है , यह अत्यंत रम्य भूमि है अनेक वृक्षों से घिरी इस  भूमि में साधना के परमाणुओं को आसानी से अनुभूत किया जा सकता है , उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र ६० किलोमीटर में स्थित यह भूमि आज भी पूज्य गुरुदेव की साधना की सुगंध से परिपूर्ण है |

बुधवार, 5 जून 2013

ब्रह्मलीन आ. म. निर्वाणपीठाधीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी विश्वदेवानन्द जी की ब्रह्मचारी अनंतबोध चैतन्य के साथ वार्तालाप के कुछ अंश


महाराज श्री से जन्म समय तथा जन्म स्थान के  बारे मे पूछने पर महाराज श्री का बडा सारगर्भित उत्तर-
पूज्य महाराज  जी फ़रमाते हैं कि साधु का परिचय जन्म के साथ नहीं होता ,साधु अपनी मृत्यु से परिचय  देता हैं। उसका कर्त्तृत्व ही समाज के लिये प्रेरक होता हैं।  वह अपनी समसायमिक व्यवस्था के साथ आने वाली भविष्य की पीढियों के प्रति भी कर्तव्यबोध तथा प्रयोग के द्वारा जीवन के महत् उद्देश्यों व मूल्यों की विरासत प्रस्तुत करता हैं। साधु अपनी मृत्यु के साथ  भी कुछ दे जाता है।यही कारण है कि महात्मा की मृत्युतिथि महोत्सव के रुप मे देखी जाती है, जिससे प्रेरणा लेकर जीवन को उत्सव की भांति जी सके। पुनः इसी प्रश्न के सन्दर्भ में महाराज श्री ने कहा कि जगन्मिथ्यात्त्व के दर्शन में समाहित हुई  आत्मचेतना  स्वयं के परम लक्ष्य ब्रह्मभाव में स्थिति के साथ देह और देह सम्बन्धी व्यवस्थाओं  को लौकिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में गौण मानती हुई उस पर ज्यादा चर्चा करने और सुनने में उत्सुक नहीं होती।
यथार्थ जगत् की अपनी एक सत्ता है किन्तु वह बाधित है।जीवन की अनिवार्यता तो उसमें है लेकिन सहज व अन्तिम स्थिति नहीं है। अतःएव उसे गौण रुप में देखते हुए परम लक्ष्य मे प्रतिष्ठित  होना ही दृष्टि का प्रधान  विषय होता है। यही कारण है कि दैहिक व्यस्थाओं मे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष  की सन्निष्ठा महत्त्व का दर्शन नहीं करती।यही दृष्टि का आधारभूत दर्शन है, जो महापुरुष को सामान्य लौकिक व्यक्ति से अलग करता है । लोक में रह कर भी वह अलौकिक रहता हैं। साधुता के इसी मर्म के साथ साधु सही अर्थों मे साधु होता है एवं साधुता की साधना सिद्ध अन्तिम मञ्जिल तक पहुंचता  है। दैहिक तल पर  कर्त्तृत्व और इस तल से जुड़े हुए वह जन्मादि को ज्यादा प्रशांसित नहीं करता, इस अर्थ मे जयंती आदि के कार्यक्रम भी उसे आकर्षित नहीं कर पाते, दैहिक परिचयों के भूमि से वह अलग होता है बाध्यता है कि वह जगत मे होता है, क्योकि यह ईश्वरीय  व्यवस्था है । सुख-दुख की विभिन्न परिस्थितियों में समता बोध के साथ जीता हुआ सब कुछ सहज से अपनाता हुआ, सत्य ब्रह्म की उर्ध्व   भूमि में समासीन  रहता है। इस अर्थ में दैहिक परिचय उपेक्षणीय मानता है। भक्त, अपनी आस्था से कुछ भी करें श्रध्दा की भाषा और  भावना में किसी भी स्तर से मान की भूमिका  बनायें  लेकिन महापुरूष अमान और उन्मन ही रहते हैं।
सन्देश - आत्मस्थिति अर्थात् ब्रह्मात्मैक्यस्थिति का बोध यही जीवन का परम लक्ष्य  है। जिस लक्ष्य का सन्देश वेदवेदान्त विभिन्न-घोषणाओं के द्वारा देते चले आ रहे  है प्राप्त गुरुज्ञान से उसकी अनुभुति तथा स्मृति बनाये रखते हुये अपनी प्राप्त क्षमता  तथा योग्यता के साथ  ईश्वरीय चेतना के प्रकाश में  व्यक्ति सत्कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ सहज दोषों से अपने को अलग रखने का दृढ संकल्प रखें। सत्य एवं सदाचार का अनुसरण करें ।
संकलनकर्ता --- ब्रह्मचारी अनन्तबोध चैतन्य