|| दिवङ्गतेभ्यश्श्रीशारदानन्दगिरिस्वामिभ्यश्श्रद्धाञ्जलि:||
****
भावैर्यं हृदयं स्मरेन्मधुमयं सौख्यस्मृतिं स्वामिनं
चित्तं नैव जहाति यस्य महिमाप्लावप्रसन्नं रतिं
दिव्यप्रीतियुजामिवाच्युतहरेर्भक्तौ च यो मज्जितो
ब्रह्मत्त्वं स गतोऽद्य मद्गुरुवरश्श्रीशारदानन्दन:||१||
जिन मधुमय, सुखसम्पन्न स्मृति वाले, स्वामी जी को हमारा दिल भावुक होकर स्मरण करता है, जिनकी महिमा में डूबकर प्रसन्न मन जिनकी मोहब्बत को छोड़ना ना चाहे, जिनका प्रेम ही दिव्य होता है ऐसे लोगों की तरह , कभी नष्ट ना होने वाले हरि की भक्ति में ही जो डूब चुके हैं, ऐसे हमारे गुरुवर श्री शारदानंद गिरि जी आज ब्रह्मलीन हो गए।
यच्चैवाद्य महात्मनां बहुविधं सङ्घात्मकं ख्याप्यते
तेष्वेकं च 'निरञ्जनी'ति भवताद्वैराग्यभाजां सुखं
तस्मिन् श्रीलनरोत्तमाद्गुरुवराद्दीक्षां प्रलभ्याप्यसौ
धर्मप्राणमयप्रयाग-परमानन्दाश्रमी राजते||२||
जो आज संन्यस्त महात्माओं के संघ स्वरूप बहुत से अखाड़े हैं उनमें से एक निरंजनी अखाड़ा भी है इसी अखाड़े के अंतर्गत श्रीमान् नरोत्तमानंद गिरि जी महाराज से दीक्षा लेकर, स्वामी शारदानंद गिरी जी ने धर्म के प्राण स्वरूप नगर प्रयागराज में परमानंद आश्रम की स्थापना की।
अध्यात्मैकरुचिश्शुचिर्वररुचिग्रन्थे मुदा संरत:
काशीपण्डितसङ्घलब्धबहुसम्मानश्च सद्भिर्वृतो
देवीवाचमथापि विश्वपटले य: ख्यापयेत्संयमी
त्यक्त्वा संसृतिमद्य विष्णुजगति व्यापद्यतेति श्रुतम्||३||
एकमात्र अध्यात्म में रूचि वाले , अत्यंत पवित्र , वररुचि के ग्रंथ का अध्ययन करने वाले,काशी पंडित परिषद् से बहुत सम्मान प्राप्त करने वाले , सज्जनों से घिरे रहने वाले, संयमी तथा संस्कृत को पूरे संसार में फैलाने वाले, आज इस अलौकिक संसार को छोड़कर भगवान विष्णु के लोक को पधार गए!
हे स्वामिंस्तव धर्मपूर्णपदवी अक्ष्णोर्ममास्ते सदा
हे स्वामिंस्तव कर्मभूमिरिव मे नेत्राग्रगा वर्तते
हे स्वामिंस्तव मर्मजातगुणसद्भावाश्च वित्तानि नो
हे स्वामिंस्तव सत्कथा हि जगता प्रेम्णा हृदा स्मर्यते||४||
हे स्वामी जी आपकी धर्म पूर्ण पदवी सदा मेरी आंखों में बसी है । हे स्वामी जी आपकी समस्त कर्म भूमि मेरी आंखों के आगे नाच रही है। हे स्वामी जी! आपके हृदय में बसने वाले सद्भाव, जिनको हमने ग्रहण किया, वही हमारी जमा-पूंजी हैं। हे स्वामी जी आपके जीवन की सच्चरित्र रूपी कथा इस संपूर्ण संसार के द्वारा हार्दिक भावों से सदा ही स्मरण करी जाएगी।
के धर्माय कतीह जीवनमहो जीवन्ति हात्त्वा गृहं
के वेदाय समर्पिता भुवि जनाश्शास्त्राय गोभ्यस्तथा
हैषामेकमिदं समुत्तरमहं तुभ्यं ददामीति रे
सन्तस्सन्ति यथा दिवङ्गतगुरुश्श्रीशारदानन्दन:||५||
ऐसे कितने हैं, और कौन हैं, जो अपने घर-बार को छोड़कर सिर्फ धर्म के लिए ही जीवन जीते हैं?? ऐसे कितने लोग हैं, और कौन हैं , जो वेद-शास्त्र पढ़ने के लिए जीवन जीते हैं तथा गौ-सेवा के लिए समर्पित हैं??अरे भाई! इन सब बातों का एक ही उत्तर मैं तुम्हें आज देता हूं - वह हमारे संत समाज के लोग हैं! (या इस प्रकार के जो लोग हैं वह भी संत ही हैं) और इन्हीं संतो में एक हैं - श्रीशारदानंद गिरी जी महाराज।
श्रीशारदानन्दगिरिर्महात्मा
सदैव पूज्यश्चरितव्यरूप:
अनन्तबोधैरवबुध्य सन्तं
हिमांशुगौडैर्व्यरचीह भावै:||
श्रीशारदानंद गिरि जी महाराज, सदैव पूज्य और आचरण करने योग्य है धर्मरूप जिनका, इस प्रकार के महात्मा थे! स्वामीश्रीअनंतबोध चैतन्य जी द्वारा उन संत के विषय में जानकार तथा प्रेरणा पाकर, हिमांशु गौड़ ने अपने भावों द्वारा यह श्रद्धांजलि स्वामी जी के लिए समर्पित की है।
***
हिमांशुर्गौड:
०८:४५ रात्रौ,
३०/०६/२०२१