गुरुवार, 7 अगस्त 2025

श्रावणी पर्व (श्रावणी पूर्णिमा): शुद्धि, संकल्प और धर्म का महापर्व

 


श्रावणी पूर्णिमा, जिसे श्रावणी उत्सव के नाम से भी जाना जाता है, यह हिंदू पंचांग के श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला एक अत्यंत पावन और बहुआयामी पर्व है। भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में इसे अनेक रूपों में मनाया जाता है — जैसे उपाकर्म (जनेऊ परिवर्तन संस्कार), रक्षा बंधन, भगवान शिव एवं विष्णु की पूजा, और वेदों के प्रति पुनः संकल्प। यह पर्व आध्यात्मिक शुद्धिकरण, आत्मचिंतन, और पारिवारिक प्रेम का प्रतीक है।

श्रावणी पूर्णिमा की जड़ें वैदिक परंपराओं में गहरी हैं। श्रावण मास, जिसका नाम श्रवण नक्षत्र से लिया गया है, वैदिक पंचांग में अत्यंत शुभ माना जाता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद जैसे प्राचीन ग्रंथ इस अवधि को आध्यात्मिक साधना, विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिए उपकर्मा अनुष्ठान के लिए महत्वपूर्ण बताते हैं, जिसमें पवित्र जनेऊ (यज्ञोपवीत) का नवीकरण और वैदिक अध्ययन के प्रति प्रतिबद्धता को दोहराया जाता है। पुराणों में श्रावण मास को भगवान विष्णु को समर्पित बताया गया है, और पूर्णिमा का दिन विशेष रूप से विष्णु और शिव की पूजा के लिए पवित्र माना जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, श्रावणी पूर्णिमा समुद्र मंथन (सागर मंथन) की घटना से जुड़ी है, जो भागवत पुराण में वर्णित है। इस महान घटना में देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, जिससे अमृत और अन्य दिव्य खजाने प्राप्त हुए। भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुआ) अवतार में और भगवान शिव ने विश्व की रक्षा के लिए हलाहल विष का पान करके इस दिन को विशेष बनाया। इस प्रकार, यह उत्सव दैवीय शक्तियों की विजय और आत्मा के शुद्धिकरण का प्रतीक है।

आध्यात्मिक महत्व और अनुष्ठान

श्रावणी पूर्णिमा एक बहुआयामी उत्सव है, जिसमें कई अनुष्ठान शामिल हैं जो इसके आध्यात्मिक गहराई को दर्शाते हैं:

उपकर्मा: यज्ञोपवीत नवीकरण

उपकर्मा अनुष्ठान, जो मुख्य रूप से ब्राह्मणों द्वारा किया जाता है, पवित्र जनेऊ (यज्ञोपवीत) के नवीकरण का प्रतीक है, जो आध्यात्मिक शुद्धता और वैदिक ज्ञान के प्रति समर्पण को दर्शाता है। इस दिन ब्राह्मण अपने को अशुद्धियों से मुक्त करने के लिए अनुष्ठान करते हैं, वैदिक मंत्रों का जाप करते हैं और बुद्धि व धर्म के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। इस अनुष्ठान में याज्ञवल्क्य और व्यास जैसे ऋषियों को तर्पण अर्पित किया जाता है, जिन्होंने वैदिक ज्ञान को संरक्षित किया। उपकर्मा व्यक्ति और परमात्मा के बीच अनंत बंधन की याद दिलाता है, जिसमें जनेऊ इस बंधन का भौतिक प्रतीक है।

रक्षा बंधन: संरक्षण का बंधन

श्रावणी पूर्णिमा को रक्षा बंधन के रूप में भी मनाया जाता है, जो भाई-बहन के बंधन का उत्सव है। बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं, उनकी लंबी उम्र और सुरक्षा की प्रार्थना करती हैं, जबकि भाई अपनी बहनों की रक्षा का वचन देते हैं। महाभारत में द्रौपदी और भगवान कृष्ण की कथा से प्रेरित यह परंपरा प्रेम, कर्तव्य और आपसी संरक्षण को दर्शाती है। रक्षा बंधन पारिवारिक बंधनों से परे, सार्वभौमिक भाईचारे और सामंजस्य का प्रतीक है।

भगवान शिव और विष्णु की पूजा

श्रावण की पूर्णिमा शिव भक्तों के लिए विशेष रूप से पवित्र है, जो इस दिन व्रत, मंत्र जाप (विशेष रूप से महामृत्युंजय मंत्र) और शिवलिंग पर बेलपत्र व दूध चढ़ाकर पूजा करते हैं। भगवान विष्णु की भी पूजा की जाती है, जिसमें भक्त विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते हैं और तुलसी पत्र अर्पित करते हैं। यह दोहरी पूजा संरक्षण (विष्णु) और नकारात्मकता के विनाश (शिव) के बीच सामंजस्य को दर्शाती है, जो उत्सव के शुद्धिकरण के विषय से मेल खाती है।

पवित्र नदी स्नान और मंत्र जाप

श्रावणी पूर्णिमा पर गंगा, यमुना या नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में स्नान करना एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, जो पापों को धोने और आध्यात्मिक ऊर्जा को नवीकृत करने में मदद करता है। मानसून का मौसम, जो जीवनदायी बारिश लाता है, नदियों की पवित्रता को बढ़ाता है और प्रचुरता व शुद्धिकरण का प्रतीक है। भक्त गायत्री मंत्र जैसे मंत्रों का जाप करते हैं, जिससे दैवीय आशीर्वाद और आंतरिक शांति प्राप्त होती है। इस समय ऋषि और साधक अक्सर आश्रमों या तीर्थ स्थलों पर एकांतवास करते हैं, ध्यान और शास्त्र अध्ययन में लीन रहते हैं।

मानसून के मौसम से संबंध

श्रावणी पूर्णिमा भारत में मानसून के चरम के साथ मेल खाती है, जब बारिश से धरती का कायाकल्प होता है। मानसून नवीकरण, उर्वरता और शुद्धिकरण का प्रतीक है, जो उत्सव के आध्यात्मिक लक्ष्यों को दर्शाता है। बारिश धरती को शुद्ध करती है, ठीक वैसे ही जैसे श्रावणी पूर्णिमा के अनुष्ठान शरीर, मन और आत्मा को शुद्ध करते हैं। मानसून के बादलों के बीच चमकता पूर्ण चंद्रमा दैवीय प्रकाश का प्रतीक है, जो भक्तों को आध्यात्मिक जागृति की ओर मार्गदर्शन करता है। प्रकृति के साथ यह संबंध वैदिक विश्वास को रेखांकित करता है, जो ब्रह्मांड, मानवता और परमात्मा की एकता को दर्शाता है।

क्षेत्रीय विविधताएँ

श्रावणी पूर्णिमा भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते हुए विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में मनाई जाती है:

  • उत्तर भारत: उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में रक्षा बंधन प्रमुखता से मनाया जाता है, जहां परिवार भाई-बहन के बंधन का उत्सव मनाने के लिए एकत्र होते हैं। भगवान शिव और विष्णु के मंदिरों में अभिषेक और पूजा के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ती है।

  • दक्षिण भारत: तमिलनाडु और कर्नाटक में उपकर्मा (अवनि अवित्तम) ब्राह्मणों के लिए एक प्रमुख अनुष्ठान है। दिन की शुरुआत पवित्र स्नान से होती है, इसके बाद जनेऊ नवीकरण और वैदिक मंत्रों का जाप होता है। भक्त भगवान गणेश और विष्णु की पूजा के लिए मंदिरों में जाते हैं।

  • पश्चिमी भारत: महाराष्ट्र और गुजरात में श्रावणी पूर्णिमा को भगवान बलराम (कृष्ण के भाई) की पूजा और नारली पूर्णिमा के साथ जोड़ा जाता है, जहां मछुआरे मानसून के दौरान सुरक्षा के लिए समुद्र देवता वरुण को नारियल अर्पित करते हैं।

  • पूर्वी भारत: ओडिशा और पश्चिम बंगाल में यह उत्सव भगवान जगन्नाथ (विष्णु का रूप) और शिव की भक्ति के साथ मनाया जाता है। भक्त पुरी जैसे तीर्थ स्थलों की यात्रा करते हैं और नदियों या मंदिरों के तालाबों में अनुष्ठान करते हैं।

आधुनिक आध्यात्मिक प्रासंगिकता

आज के तेजी से बदलते विश्व में, श्रावणी पूर्णिमा भारत की आध्यात्मिक विरासत से जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण कड़ी है। यह उत्सव भक्तों को रुकने, चिंतन करने और शुद्धता, भक्ति और समुदाय को बढ़ावा देने वाले अनुष्ठानों के माध्यम से अपने भीतर की यात्रा करने के लिए प्रेरित करता है। उपकर्मा अनुष्ठान आजीवन सीखने और नैतिक जीवन को प्रोत्साहित करता है, जबकि रक्षा बंधन पारिवारिक और सामाजिक सामंजस्य को बढ़ावा देता है। मंत्र जाप और पवित्र स्नान का महत्व आधुनिक साधकों के लिए प्रासंगिक है, जो माइंडफुलनेस और समग्र कल्याण को महत्व देते हैं।

श्रावणी पूर्णिमा पर्यावरण चेतना का भी संदेश देती है। मानसून के साथ इसका संबंध प्रकृति के चक्रों का सम्मान करने के महत्व को रेखांकित करता है, जो जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है। कई आधुनिक भक्त पर्यावरण-अनुकूल प्रथाओं को अपनाते हैं, जैसे अनुष्ठानों के लिए टिकाऊ सामग्री का उपयोग और नदियों के संरक्षण के प्रयासों का समर्थन।

निष्कर्ष

श्रावणी पूर्णिमा केवल एक उत्सव नहीं है; यह आध्यात्मिकता, नवीकरण और मानवता व परमात्मा के बीच अनंत बंधन का उत्सव है। उपकर्मा, रक्षा बंधन और भगवान शिव व विष्णु की पूजा जैसे अनुष्ठानों के माध्यम से, भारत भर के भक्त धर्म, प्रेम और शुद्धिकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को पुनः पुष्ट करते हैं। वैदिक परंपराओं में निहित और क्षेत्रीय विविधताओं से समृद्ध, यह पवित्र दिन लाखों लोगों को आंतरिक शांति और ब्रह्मांड के साथ सामंजस्य की खोज के लिए प्रेरित करता है। निरंतर बदलते विश्व में, श्रावणी पूर्णिमा विश्वास, परिवार और आध्यात्मिक नवीकरण की शाश्वत शक्ति की याद दिलाती है।

सोमवार, 28 जुलाई 2025

श्रावण मास का हिंदू परंपरा में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व



श्रावण मास भगवान शिव को समर्पित एक पवित्र मास है। जानिए इसकी पौराणिक कथा, व्रत और पूजा विधियाँ, क्या करें और क्या न करें, और इस महीने का आध्यात्मिक महत्व।

श्रावण मास हिंदू पंचांग का पाँचवाँ मास होता है, जो आषाढ़ पूर्णिमा के ठीक बाद शुरू होता है। इसका नाम ‘श्रवण’ नक्षत्र से लिया गया है, क्योंकि इस मास की पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र होता है। मान्यता है कि इसी महीने समुद्र मंथन हुआ था, जिसमें सबसे पहले विष निकला। इस विष को ग्रहण कर भगवान शिव ने दुनिया को बचाया, इसलिए उन्हें ‘नीलकंठ’ कहा जाता है। श्रद्धालु इस समय शिवजी को जल, दूध और बेलपत्र अर्पित कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

भगवान शिव के साथ विशेष संबंध


श्रावण मास भगवान शिव को समर्पित माना जाता है। इस मास में शिव की पूजा, व्रत, और जप का विशेष फल बताया गया है। खासकर सोमवार के दिन ‘श्रावण सोमवारी’ का व्रत बहुत पुण्यदायक माना जाता है। कहा जाता है कि माता पार्वती ने शिवजी को पति रूप में पाने के लिए इसी मास में उपवास किया था, इसलिए यह मास भक्तों के लिए खुशियों और आशीर्वाद का प्रतीक है।

भारत के विभिन्न भागों में श्रावण का महत्व


  • उत्तर भारत: यहाँ ‘कांवड़ यात्रा’ बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ भक्त गंगा जल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। हरिद्वार, काशी, त्र्यंबकेश्वर जैसे तीर्थस्थलों पर भक्तों की भीड़ लगती है।

  • दक्षिण भारत: इस क्षेत्र में वरलक्ष्मी व्रत, मंगलगौरी व्रत और श्रावण शुक्रवार जैसे अनुष्ठान अधिक प्रचलित हैं। देवियाँ लक्ष्मी एवं पार्वती यहां विशेष पूजा की जाती हैं।

  • पश्चिम एवं पूर्व भारत: नाग पंचमी, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी जैसे उत्सव श्रावण मास में बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं। महिलाएं तीज और कजरी तीज के व्रत करती हैं।

साधनाएँ, व्रत और पूजा विधि


  1. सोमवार व्रत: सोमवार का दिन शिवजी का हुआ, इसलिए व्रत रखा जाता है; शिवलिंग पर बेलपत्र, जल, दूध चढ़ाया जाता है और शिवमंत्र का जाप किया जाता है।

  2. मंगल गौरी व्रत: महिलाएं मंगलवार को व्रत रखकर अपने परिवार के कल्याण की कामना करती हैं।

  3. श्रावण शुक्रवार / वरलक्ष्मी पूजा: धन और समृद्धि के लिए लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है।

  4. रुद्राभिषेक: शिवलिंग पर विशेष अभिषेक किया जाता है और महामृत्युंजय मंत्र का जाप होता है।

  5. कांवड़ यात्रा: उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर गंगा जल लेकर शिवलिंग पर चढ़ाने का यह पर्व मनाया जाता है।

  6. अन्य पर्व: नाग पंचमी, तीज, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी आदि श्रावण मास के प्रमुख त्यौहार हैं।

क्या करें और क्या न करें (अनुशंसित नियम)

क्या करें:


  • सुबह जल्दी उठकर स्नान और पूजा करें।

  • सोमवार का व्रत रखें और शिव मंदिर जाकर जल-अभिषेक करें।

  • बेलपत्र, धतूरा, भांग आदि अर्पित करें।

  • जरूरतमंदों को दान-पुण्य करें, विशेषकर भोजन और वस्त्र।

  • धार्मिक ग्रंथों का पाठ और शिवपुराण, महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें।

  • संयम, ध्यान और भक्ति से पूजा पाठ करें।

क्या न करें:


  • इस महीने मांसाहार, शराब, लहसुन- प्याज और नशे से पूर्ण वर्जित रहें।

  • झूठ बोलना, हिंसा करना, और बुरे शब्दों का प्रयोग न करें।

  • सोमवार के दिन बाल और नाखून न काटें, और विवाह या मांगलिक कार्य टालें।

  • क्रोध, लोभ, आलस्य जैसी तामसी प्रवृत्तियों से दूर रहें।

आध्यात्मिक महत्त्व


श्रावण मास को आत्मा की शुद्धि और आत्म-अनुशासन का काल माना जाता है। शिवजी की भक्ति में यह मास मनुष्य को संयम, क्षमा और करूणा की ओर प्रेरित करता है। विष को सहन कर अमृत बन जाने वाले नीलकंठ की तरह, श्रावण मास में हम भी अपने अंदर की नकारात्मकता दूर कर सकते हैं।

श्रावण मास भारतीय संस्कृति में अध्यात्म और भक्ति का अमृतकाल है। यह समय भगवान शिव की कृपा से जीवन में सच्ची श्रद्धा, संयम और प्रेम को जगाता है। इसी भाव से श्रावण मास में व्रत रखकर, पूजा-अर्चना करके भक्त अपने जीवन को पवित्र और सुखमय बनाते हैं।

मंगलवार, 15 जुलाई 2025

दशऋत होकर राम नाम जपें: कोटि यज्ञों के फल का रहस्य

 


राम नाम सब कोई कहे, दशऋत कहे न कोय, 

एक बार दशऋत कहे, कोटि यज्ञ फल होय।

प्रस्तावना: क्या राम नाम सबके लिए फलदायक है?

अधिकतर लोग राम नाम का जप करते हैं, परंतु वे उसके वास्तविक फल से वंचित रह जाते हैं। ऐसा क्यों? इसका उत्तर छिपा है “दशऋत” के सिद्धांत में। जब तक मन, वाणी और कर्म से हम शुद्ध नहीं होते और नाम जप में पूर्ण श्रद्धा व मर्यादा नहीं अपनाते, तब तक राम नाम का प्रभाव मात्र औपचारिक रहता है।

दशऋत का अर्थ क्या है?

‘ऋत’ का अर्थ है – दोष, अपवित्रता, कुवासनाएँ और अशुद्ध प्रवृत्तियाँ। दशऋत से तात्पर्य है वे दस दोष जिनसे बचकर यदि राम नाम लिया जाए, तो उसका प्रभाव कोटि यज्ञ के फल के बराबर हो जाता है।

दश नामापराध: जो राम नाम को निष्फल बनाते हैं

  1. सत्पुरुषों की निन्दा (सन्निन्दा)
    सत्य मार्ग पर चलने वालों की निन्दा करना, ईर्ष्या या स्वार्थ के कारण सच्चाई का विरोध करना।

  2. असत्य वैभव की स्तुति
    झूठ, पाखंड या अधर्म से प्राप्त वैभव की प्रशंसा करना।

  3. श्रीहरि और शिव में भेद बुद्धि
    विष्णु और शिव को अलग मानना, जबकि दोनों एक ही परम सत्ता के रूप हैं।

  4. गुरु वचनों में अश्रद्धा
    सद्गुरु के निर्देशों को महत्व न देना, संदेह करना।

  5. शास्त्रों में अविश्वास
    धर्मशास्त्रों के सत्य एवं उपयोगिता पर विश्वास न करना।

  6. वेद वचनों की उपेक्षा
    वेदों को झूठा या अप्रासंगिक मानना।

  7. नाम के अर्थ में भ्रम
    ईश्वर के विभिन्न नामों के भिन्न अर्थों से उनके अलग-अलग स्वरूप मान लेना।

  8. केवल नाम से मुक्ति की भूल
    यह मानना कि केवल राम नाम जपने से बिना व्यवहारिक सुधार के ही मोक्ष मिल जाएगा।

  9. कर्तव्य से पलायन
    जीवन के उत्तरदायित्वों से मुँह मोड़कर केवल साधना के नाम पर पलायन करना।

  10. अधर्म को धर्म के समान समझना
    सामाजिक कुरीतियों जैसे बलिप्रथा, जातीय भेद को धर्म मान लेना।

नाम जप के साथ संयम और शुद्धि क्यों जरूरी है?

राम नाम कोई साधारण शब्द नहीं है। यह ईश्वर का स्वयं का स्वरूप है। इसका जप तभी फलदायी होता है जब साधक:

  • अपनी इन्द्रियों को संयमित करता है।

  • सच्चरित्र जीवन अपनाता है।

  • दशऋतों से मुक्त होकर शुद्ध भाव से नाम जप करता है।

तोते भी “राम-राम” रटते हैं, पर उससे कोई आत्मिक लाभ नहीं होता। राम नाम तभी सार्थक है जब उसे श्रद्धा, नियम, संयम और समर्पण से जपा जाए।

उपसंहार: कोटि यज्ञों का फल कैसे प्राप्त हो?

जो व्यक्ति दश नामापराधों से बचकर, सच्चे मन से, सद्गुरु के बताए मार्ग पर चलकर, कर्तव्य का पालन करते हुए राम नाम जपता है—वही इस "दशऋत नामजप साधना" का कोटि यज्ञों के फल के समान लाभ प्राप्त करता है।

ऐसे साधकों का जीवन ही यज्ञ बन जाता है, और आत्मा पवित्र होकर प्रभु से जुड़ जाती है।

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

गुरु पूर्णिमा: ज्ञान का प्रकाश और गुरु-शिष्य परंपरा का महापर्व

 


गुरु पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराती है कि ज्ञान का स्रोत गुरु ही हैं – वे मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत और ब्रह्मतत्व के संवाहक हैं।

"गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।

गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥"

यह पावन श्लोक गुरु की महिमा को अक्षुण्ण रूप से चित्रित करता है। गुरु पूर्णिमा—सनातन धर्म का वह दिव्य पर्व, जो ज्ञान के प्रकाश से आत्मा के अंधकार को मिटाता है और गुरु के प्रति श्रद्धा का संचार करता है। आइए, इसके गूढ़ अर्थ, ऐतिहासिक महत्व और आधुनिक प्रासंगिकता को जानें।

'गुरु' का अर्थ और महत्व

संस्कृत में 'गु' का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' का अर्थ है उसे दूर करने वाला। इस प्रकार, गुरु वह है जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर आत्मज्ञान का प्रकाश फैलाता है। गुरु केवल एक शिक्षक नहीं, बल्कि वह दिव्य शक्ति है जो हमें सही मार्ग दिखाती है। 'गुरु' शब्द की व्युत्पत्ति पाणिनीय व्याकरण में 'गृ' धातु से मानी गई है, जो निम्नलिखित अर्थों में प्रकट होती है:

गुण

विवरण

गृणाति

ज्ञान उत्पन्न करता है, जैसे ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं।

सिंचति

ज्ञान से हृदय को सींचता है, जैसे विष्णु संसार का पालन करते हैं।

नाशयति अज्ञानम्

अज्ञान का नाश करता है, जैसे शिव संहार करते हैं।

बोधयति शास्त्रम्

शास्त्रों का गूढ़ ज्ञान कराता है, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।

सन्मार्ग दर्शक

जीवन के हर मोड़ पर सही राह दिखाता है।

इसीलिए गुरु को साक्षात् परब्रह्म कहा गया है, जो शिष्य को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करता है।

सनातन परंपरा में गुरु की भूमिका

हमारी सनातन परंपरा में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। महर्षि यास्क ने अपने 'निरुक्त' ग्रंथ में कहा है:

"साक्षात्कृत धर्माण ऋषयो बभूवु:। तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृत-धर्मभ्य: उपदेशेन मन्त्रान् संप्रादु:।"

अर्थात्, धर्म का साक्षात्कार करने वाले तपस्वी ऋषियों ने अपने से अवर कोटि के व्यक्तियों को, जो धर्म का साक्षात्कार नहीं कर सके, उन्हें मंत्रों का उपदेश दिया। यह गुरु-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की नींव है, जो ज्ञान के आदान-प्रदान को अनादिकाल से जीवित रखती है।

गुरु पूर्णिमा: कब और क्यों?

गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, जो इस वर्ष 10 जुलाई 2025 को है। यह पर्व मुख्य रूप से महर्षि वेदव्यास को समर्पित है, जिन्होंने वेदों को चार भागों में विभाजित कर ज्ञान को संरचित किया। इसीलिए इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास को आदि गुरु माना जाता है, जिन्होंने अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाया।

महर्षि वेदव्यास का अतुलनीय योगदान

महर्षि वेदव्यास, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन व्यास के नाम से भी जाना जाता है, का जन्म गुरु पूर्णिमा के दिन हुआ था। वे महाभारत, 18 पुराण, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भागवत जैसे महान ग्रंथों के रचयिता हैं। उन्होंने वेदों को चार भागों—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद—में विभाजित किया और अपने चार प्रमुख शिष्यों—पैल, वैशंपायन, जैमिनी और सुमंतु—को वेदों की शिक्षा दी। यह भी माना जाता है कि उन्होंने दत्तात्रेय जैसे महागुरु को भी शिक्षा दी, जिन्हें "गुरुओं के गुरु" कहा जाता है।

बौद्ध परंपरा में महत्व

गुरु पूर्णिमा का महत्व केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं है। बौद्ध परंपरा में यह दिन विशेष श्रद्धा से मनाया जाता है, क्योंकि इस दिन भगवान बुद्ध ने सारनाथ (उत्तर प्रदेश) में अपना पहला उपदेश दिया था, जिससे धम्मचक्र प्रवर्तन का सूत्रपात हुआ। बौद्ध अनुयायी इस दिन अपने गुरु, भगवान बुद्ध के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।

कृषि, प्रकृति और साधना से संबंध

गुरु पूर्णिमा से चातुर्मास की शुरुआत होती है, जो चार महीने की अवधि है जब वर्षा ऋतु के कारण तपस्वी और आध्यात्मिक गुरु एक स्थान पर रुककर शिष्यों को शिक्षा देते हैं और ध्यान-साधना में लीन रहते हैं। यह समय किसानों के लिए भी शुभ माना जाता है, क्योंकि वर्षा ऋतु की शुरुआत से भूमि को जीवन मिलता है और फसलें लहलहाती हैं। यह आध्यात्मिक कक्षाएं शुरू करने और साधना को गहन करने का भी उत्तम समय है।

गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का दिन

इस दिन शिष्य अपने गुरु के चरणों में उपस्थित होकर आभार, सेवा और समर्पण व्यक्त करते हैं। यह आत्मनिरीक्षण, साधना और संकल्प का दिन है। भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में जहाँ-जहाँ गुरु-शिष्य परंपरा जीवित है, वहाँ यह पर्व श्रद्धा से मनाया जाता है।

स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी महाराज: एक प्रेरणादायी जीवन

इस पावन अवसर पर, मैं अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री 1008 स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी महाराज को सादर नमन करता हूँ। वे निर्वान पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर थे, जिन्होंने भक्ति, ज्ञान और सेवा के माध्यम से अनगिनत शिष्यों के जीवन को आलोकित किया।

  • प्रारंभिक जीवन: स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी का जन्म कैलाश नाथ शुक्ल के रूप में हुआ। बचपन से ही उनकी रुचि आध्यात्मिकता और धर्म में थी। वेदों और शास्त्रों के अध्ययन ने उन्हें सन्यासी जीवन अपनाने के लिए प्रेरित किया।

  • सन्यास और साधना: 16 वर्ष की आयु में उन्होंने घर त्याग दिया और नैमिषारण्य के पास दरियापुर गाँव में पुज्य स्वामी सदानंद परमहंस से मुलाकात की। वहाँ उन्होंने 5-6 वर्ष तक विभिन्न साधनाओं में महारत हासिल की और आत्मज्ञान प्राप्त किया।

  • सन्यास दीक्षा: 1962 में स्वामी अतुलानंद जी ने उन्हें सन्यास दीक्षा दी, जिसके बाद वे परमहंस परिव्राजक आचार्य स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज के नाम से जाने गए। यह दीक्षा हिंदू धर्म में उच्चतम आध्यात्मिक स्तर का प्रतीक है।

  • विश्व भ्रमण और सेवा: उन्होंने भारत और विश्व भर में तीर्थयात्राएँ कीं, लोगों की समस्याओं को समझा और उनके समाधान के लिए कार्य किया। उनकी शिक्षाएँ "वसुधैव कुटुंबकम्" (विश्व एक परिवार है) के सिद्धांत पर आधारित थीं।

  • विश्व कल्याण फाउंडेशन: हरिद्वार में स्थापित श्री यंत्र मंदिर उनकी आध्यात्मिक और सामाजिक सेवा का प्रतीक है। यह मंदिर आज भी उनकी शिक्षाओं और दिव्य उपस्थिति का केंद्र है।

  • विरासत: 7 मई 2013 को उनकी महासमाधि के बाद भी, उनकी शिक्षाएँ और श्री यंत्र मंदिर अनगिनत शिष्यों को प्रेरित करते हैं।

मैं, अनंतबोध चैतन्य, स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी महाराज का एक विनम्र शिष्य हूँ। उनकी दिव्य कृपा और शिक्षाओं ने मेरे जीवन को भक्ति, ज्ञान और सेवा के मार्ग पर प्रेरित किया है। उनके द्वारा स्थापित श्री यंत्र मंदिर और विश्व कल्याण फाउंडेशन के माध्यम से, मैं उनकी शिक्षाओं को विश्व भर में फैलाने और उनकी आध्यात्मिक विरासत को जीवित रखने के लिए समर्पित हूँ। उनकी शिक्षाओं ने मुझे प्रेम, एकता और आत्मजागृति का सच्चा अर्थ सिखाया है।

निष्कर्ष

गुरु पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराती है कि गुरु ही ज्ञान का स्रोत हैं—वे मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत और ब्रह्मतत्व के संवाहक हैं। इस पावन दिन पर, आइए हम अपने सभी गुरुओं को स्मरण करें—चाहे वे आध्यात्मिक हों, शैक्षिक हों, या जीवन के अनुभवों से प्राप्त हों। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें और उनके दिखाए मार्ग पर चलने का संकल्प लें।

श्री गुरु चरणों में साष्टांग प्रणाम। 

भवदीय,
अनंतबोध चैतन्य

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

श्री यंत्र: यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं, आपकी समृद्धि का नक्शा है

 



क्या आपने कभी ऐसा महसूस किया है कि आप जीवन में मेहनत तो बहुत कर रहे हैं, लेकिन कहीं न कहीं कुछ रुका हुआ है? आप अवसरों के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं, पर वे खुलते नहीं। या शायद आपके पास सब कुछ है—एक अच्छा करियर, परिवार—लेकिन फिर भी एक खालीपन, एक असंतोष का भाव मन में रहता है।

अगर आप इन भावनाओं से जुड़ाव महसूस कर सकते हैं, तो मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आप अकेले नहीं हैं। हम सब जीवन में सच्ची प्रचुरता और समृद्धि की तलाश में हैं। लेकिन क्या होगा अगर मैं आपसे कहूँ कि इस प्रचुरता को अनलॉक करने की एक प्राचीन कुंजी है, एक ऐसा रहस्य जो हज़ारों सालों से हमारे ऋषियों और ज्ञानियों को पता था?

आज हम एक ऐसे ही प्राचीन रहस्य—श्री यंत्र—की दुनिया में गहराई से उतरेंगे। इसे सिर्फ "यंत्रों की रानी" नहीं कहा जाता, बल्कि यह स्वयं में ब्रह्मांड का एक नक्शा है, जो आपको अपनी उच्चतम क्षमता तक पहुँचने का मार्ग दिखा सकता है।

तो, आखिर यह श्री यंत्र है क्या?

पहली नज़र में, श्री यंत्र आपस में गुंथे हुए त्रिभुजों और वृत्तों का एक जटिल ज्यामितीय डिज़ाइन लगता है। लेकिन यह केवल कला का एक टुकड़ा नहीं है। यह एक शक्तिशाली ऊर्जा उपकरण है।

  • 'श्री' का अर्थ केवल पैसा नहीं है, बल्कि हर तरह की समृद्धि है—स्वास्थ्य, सौंदर्य, खुशी, शांति, और सकारात्मक रिश्ते।

  • 'यंत्र' का अर्थ है एक "उपकरण" या "साधन"।

तो, श्री यंत्र का शाब्दिक अर्थ है "समृद्धि का उपकरण"। यह एक ऐसा पवित्र साधन है जिसे आपके जीवन में हर तरह की सकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित करने, बनाए रखने और बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

समृद्धि का सच्चा मतलब क्या है? क्या यह सिर्फ पैसा है?

चलिए एक पल के लिए सोचते हैं। जब हम "समृद्धि" या "Abundance" कहते हैं, तो हमारे दिमाग में अक्सर पैसा और भौतिक चीज़ें आती हैं। लेकिन सच्ची समृद्धि इससे कहीं ज़्यादा गहरी है।

कल्पना कीजिए:

  • आपके पास बहुत पैसा है, लेकिन उसे एन्जॉय करने के लिए मन में शांति नहीं है।

  • आपके पास बहुत शक्ति है, पर आप हर समय असुरक्षित महसूस करते हैं।

  • आप दुनिया भर से प्यार करते हैं, लेकिन उसे खुलकर व्यक्त नहीं कर पाते।

सच्ची समृद्धि का अर्थ है: "वह करने की पूरी आज़ादी जो आप वास्तव में करना चाहते हैं, जब आप उसे करना चाहते हैं, और अपने जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य के साथ।"

यह वह स्वतंत्रता है जहाँ पैसा, स्वास्थ्य, और रिश्ते आपके रास्ते की रुकावट नहीं, बल्कि आपके सहायक बन जाते हैं। और श्री यंत्र ठीक इसी समग्र समृद्धि को अनलॉक करने का काम करता है।

श्री यंत्र असल में काम कैसे करता है? (यहाँ जादू शुरू होता है)

श्री यंत्र दो स्तरों पर काम करता है, और यही इसे इतना शक्तिशाली बनाता है:

1. रुकावटों को हटाना (सफाई का काम): सोचिए कि आप एक सुंदर बगीचा बनाना चाहते हैं, लेकिन ज़मीन जंगली घास और पत्थरों से भरी है। क्या आप सीधे बीज बो देंगे? नहीं, पहले आप सफाई करेंगे। श्री यंत्र ठीक यही करता है। यह आपके जीवन की आंतरिक (डर, नकारात्मक सोच, आत्मविश्वास की कमी) और बाहरी (वित्तीय समस्याएँ, खराब रिश्ते) बाधाओं को धीरे-धीरे साफ़ करता है। यह आपकी ऊर्जा को शुद्ध करता है ताकि समृद्धि का प्रवाह शुरू हो सके।

2. चेतना का विस्तार (निर्माण का काम): एक बार जब ज़मीन साफ़ हो जाती है, तो आप बीज बोते हैं। श्री यंत्र आपकी चेतना को फिर से संरेखित (align) करता है। यह आपके दिमाग को अवसरों को पहचानने के लिए प्रशिक्षित करता है, आपके भीतर की पुरुष (तार्किक) और स्त्री (रचनात्मक) ऊर्जा को संतुलित करता है, और आपको एक ऐसे "चुंबक" में बदल देता है जो स्वाभाविक रूप से अच्छी चीजों को आकर्षित करता है।

श्री यंत्र के डिज़ाइन का रहस्य: ब्रह्मांड का ब्लूप्रिंट

यह डिज़ाइन सिर्फ सुंदर नहीं, बल्कि गहरा अर्थ रखता है।

  • केंद्रीय बिंदु (बिंदु): यह आप हैं—आपकी आत्मा, आपकी चेतना का स्रोत, जहाँ से सब कुछ शुरू होता है।

  • 9 आपस में गुंथे हुए त्रिभुज:

    • 4 ऊपर की ओर त्रिभुज: ये शिव (पुरुष ऊर्जा) का प्रतीक हैं। ये स्थिरता, संकल्प, अनुशासन और स्पष्टता को दर्शाते हैं।

    • 5 नीचे की ओर त्रिभुज: ये शक्ति (स्त्री ऊर्जा) का प्रतीक हैं। ये रचनात्मकता, ऊर्जा, भावनाएँ, और भौतिक जगत में इच्छाओं को प्रकट करने की क्षमता को दर्शाते हैं।

  • 43 छोटे त्रिभुज: जहाँ शिव और शक्ति के ये त्रिभुज मिलते हैं, वे 43 ऊर्जा केंद्र बनाते हैं, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करते हैं।

  • कमल की पंखुड़ियाँ और बाहरी घेरा: ये सुरक्षात्मक परतें हैं जो आपकी ऊर्जा को बाहरी नकारात्मकता से बचाती हैं और आपकी आध्यात्मिक यात्रा में मदद करती हैं।

यह चेतना का एक पूरा नक्शा है, जो आपको शून्य से अनंत तक ले जाता है।

अपने जीवन में श्री यंत्र को कैसे सक्रिय करें? (एक सरल गाइड)

एक श्री यंत्र को घर में रखना बहुत अच्छा है, लेकिन उसकी पूरी शक्ति को पाने के लिए उसे "जागृत" या प्राण प्रतिष्ठित करना ज़रूरी है। यह एक सरल प्रक्रिया है जिसे आप स्वयं कर सकते हैं:

  1. तैयारी:

    • समय: इसे स्थापित करने के लिए शुक्रवार (शुक्र का दिन, जो समृद्धि का ग्रह है) सबसे अच्छा है। यदि संभव हो, तो इसे शुक्ल पक्ष (बढ़ते चाँद के दिन) में स्थापित करें।

    • शुद्धि: स्नान करें, स्वच्छ वस्त्र पहनें और कुछ मिनट शांत बैठकर अपने इरादे (संकल्प) को स्पष्ट करें कि आप जीवन में क्या चाहते हैं।

  2. स्थापना:

    • दिशा: श्री यंत्र को अपने घर या कार्यस्थल के उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) में रखें। यह दिशा दिव्य ऊर्जा के लिए सबसे शुभ मानी जाती है।

    • ऊँचाई: इसे इतनी ऊँचाई पर रखें कि जब आप ध्यान में बैठें तो यह आपकी आँखों के स्तर पर हो।

    • स्थान: सुनिश्चित करें कि वह स्थान साफ़-सुथरा और अव्यवस्था से मुक्त हो।

  3. सक्रियण:

    • त्राटक (टकटकी लगाकर देखना): आराम से बैठें और अपनी दृष्टि को यंत्र के केंद्र (बिंदु) पर केंद्रित करें। धीरे-धीरे अपनी जागरूकता को बाहर की ओर फैलने दें, जैसे आप पूरे यंत्र को अपनी आँखों से पी रहे हों।

क्या उम्मीद करें? (धैर्य ही कुंजी है)

श्री यंत्र कोई जादू की छड़ी नहीं है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक अभ्यास है। इसके परिणाम समय के साथ दिखते हैं:

  • शुरुआती हफ्तों में: आप अधिक मानसिक शांति, स्पष्टता और बेहतर फोकस महसूस कर सकते हैं। चिंता कम हो सकती है।

  • 1-3 महीनों में: आप देखेंगे कि आपके रास्ते की छोटी-छोटी रुकावटें दूर हो रही हैं। रचनात्मक विचार आएंगे और आप अपने आसपास नए अवसरों को नोटिस करने लगेंगे।

  • एक साल के भीतर: यदि आप नियमित रूप से इसके साथ जुड़ते हैं, तो आप अपनी आय, स्वास्थ्य और रिश्तों में ठोस सकारात्मक बदलाव देख सकते हैं।

  • जीवन भर: यह आपको अभाव की मानसिकता से निकालकर हमेशा के लिए समृद्धि की मानसिकता में स्थापित कर देता है, जहाँ आप जीवन में सहजता से प्रवाह करते हैं।

अंतिम विचार

श्री यंत्र एक दर्पण है। यह आपको आपकी अपनी असीमित क्षमता दिखाता है। यह आपको याद दिलाता है कि आप भिखारी नहीं, बल्कि अपने भाग्य के निर्माता हैं। यह एक यात्रा है, एक अभ्यास है, और अपने भीतर छिपे ब्रह्मांड को खोजने का एक सुंदर तरीका है।

तो, क्या आप अपनी समृद्धि के नक्शे को खोलने के लिए तैयार हैं?

आपकी समृद्धि की यात्रा आज से शुरू होती है।

सोमवार, 7 जुलाई 2025

गुरु पूर्णिमा: श्रद्धा, समर्पण और ज्ञान का पावन उत्सव



गुरु पूर्णिमा की पावन परंपरा की शुरुआत कैसे हुई?

गुरु पूर्णिमा—एक ऐसा पर्व जो केवल किसी विशेष धर्म का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के अध्यात्मिक जागरण का प्रतीक है। यह पर्व आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और इसकी शुरुआत महर्षि वेदव्यास जी के पाँच शिष्यों ने की थी।

महर्षि वेदव्यास, जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का साक्षात् रूप माना गया है, बचपन से ही ध्यान, साधना और ईश्वर-प्राप्ति की ओर उन्मुख थे। जब उन्होंने ईश्वर की आराधना हेतु वन जाने का संकल्प लिया, तो प्रारंभ में माता-पिता ने मना किया। परंतु बालक वेदव्यास की अध्यात्म के प्रति दृढ़ निष्ठा देखकर उन्होंने अनुमति दे दी। इसी समर्पण और तप से उन्होंने संस्कृत भाषा में अद्भुत निपुणता प्राप्त की और महाभारत, 18 पुराण, ब्रह्मसूत्र और वेदों के विभाजन जैसे अतुलनीय कार्य संपन्न किए।

आषाढ़ पूर्णिमा के ही दिन महर्षि वेदव्यास जी ने अपने शिष्यों को श्रीमद्भागवत पुराण का उपदेश दिया। तब उनके पाँच प्रमुख शिष्यों ने इस दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाना प्रारंभ किया। तभी से इस दिन को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है।

 गुरु का महत्व शास्त्रों की दृष्टि में

गुरु का स्थान देवताओं से भी ऊपर बताया गया है।

शिवजी स्वयं कहते हैं:

गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो, गुरौ निष्ठा परं तपः।

गुरोः परतरं नास्ति, त्रिवारं कथयामि ते॥

अर्थात् गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं और गुरु में अटूट निष्ठा ही परम तप है। गुरु के बिना न तो ज्ञान की प्राप्ति संभव है, न ही आत्मोन्नति।

लोकवाणी भी यही सिखाती है:

“हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।”

भगवान रूठ जाएँ तो गुरु की शरण में शांति मिल जाती है, लेकिन यदि गुरु ही अप्रसन्न हो जाएँ, तो फिर कोई मार्ग नहीं बचता। यही कारण है कि गुरु पूर्णिमा का दिन गुरु की आराधना, पूजन और कृपा प्राप्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

 गुरु पूर्णिमा पर क्या करें?

अपने गुरु के प्रति आभार प्रकट करें।

उन्हें स्मरण करें, यदि पास न हों तो ध्यान में बैठकर उनसे आशीर्वाद माँगें।

कोई छोटा सा सेवा कार्य करें—चाहे घर में हो, आश्रम में हो या समाज के लिए।

गुरु गीता, श्रीमद्भागवत, वेदव्यास स्तुति या गुरु स्तोत्र का पाठ करें।


गुरु की कृपा ही जीवन का सबसे बड़ा संबल है

गुरु न हों तो जीवन दिशाहीन हो जाता है। वे हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं, सांसारिक भ्रम से सत्य की ओर। इस गुरु पूर्णिमा पर हम सब मिलकर प्रण लें कि गुरु के मार्गदर्शन में चलकर अपने जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाएँगे।

इस गुरु पूर्णिमा पर, आइए श्रद्धा और सेवा के भाव से अपने गुरु को नमन करें।

“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥”

✍️ लेखक: श्री अनंतबोध चैतन्य

संस्थापक, सनातन धारा फाउंडेशन | आध्यात्मिक शिक्षक व लेखक

रविवार, 6 जुलाई 2025

देवशयनी एकादशी: एक आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ


देवशयनी एकादशी: जब भगवान विष्णु योगनिद्रा में जाते हैं, और पृथ्वी को मिलती है आत्मचिंतन की प्रेरणा

देवशयनी एकादशी, जिसे हरिशयनी या आषाढ़ी एकादशी भी कहा जाता है, हिंदू धर्म के सबसे पवित्र व्रतों में से एक है। यह आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है और इस दिन से भगवान विष्णु चार माह के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं। इस अवधि को चातुर्मास कहा जाता है, जो आध्यात्मिक अनुशासन, संयम और तपस्या का समय होता है।

देवशयनी एकादशी का धार्मिक महत्व

देवशयनी एकादशी का विशेष महत्व भगवान विष्णु के योगनिद्रा में प्रवेश से जुड़ा है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शय्या पर विश्राम करते हैं। इस दौरान सृष्टि के संचालन का दायित्व भगवान शिव और अन्य देवताओं पर आ जाता है। यह समय प्रकृति के चक्र के अनुसार भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मानसून का आगमन होता है, जिससे जीवन में नयी ऊर्जा का संचार होता है।

देव शयनी एकादशी की पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार राजा मांधाता ने भगवान विष्णु से पूछा कि वह ऐसा कौन सा व्रत करें जिससे उन्हें और उनकी प्रजा को सुख-समृद्धि मिले। भगवान विष्णु ने उन्हें देव शयनी एकादशी का व्रत करने की सलाह दी।

एक अन्य कथा के अनुसार, भगवान विष्णु ने इस दिन से चार महीने तक विश्राम करने का निर्णय लिया ताकि भक्त उनकी भक्ति में अधिक समय बिताएं और प्रकृति को भी संतुलन में लाने का अवसर मिले। इस दौरान भक्त भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।

इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि सही समय पर सही उपाय करने से संकट का समाधान संभव है। देवशयनी एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के जीवन में सुख, समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

देवशयनी एकादशी का व्रत और पूजा विधि

1. स्नान और शुद्धता: ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्वच्छ जल से स्नान करें। शुद्ध वस्त्र पहनें, विशेषकर पीला रंग शुभ माना जाता है।

2. पूजा सामग्री: भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र, पीले फूल, अक्षत (चावल), चंदन, धूप-दीप, नैवेद्य (फल, मिठाई), तुलसी पत्र।

3. पूजा विधि:

भगवान विष्णु की आरती करें।

विष्णु सहस्रनाम या ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करें।

तुलसी के पौधे की पूजा करें और उसे जल अर्पित करें।

व्रत का संकल्प लें और पूरे दिन उपवास रखें।

4. व्रत का पारण: अगले दिन प्रातः शुभ मुहूर्त में फलाहार करें।

चातुर्मास का आरंभ

देवशयनी एकादशी से शुरू होने वाला चातुर्मास चार माह तक चलता है। इस अवधि में भगवान विष्णु योगनिद्रा में होते हैं। इस समय धार्मिक अनुशासन का विशेष महत्व होता है। विवाह, गृह प्रवेश, नए कार्य आदि वर्जित माने जाते हैं। यह काल साधना, व्रत, दान और आध्यात्मिक चिंतन का होता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

मानसून के आगमन के साथ वातावरण में नमी बढ़ती है, जिससे कई रोग फैलने का खतरा रहता है। इस समय उपवास और संयम से शरीर को विषाक्त पदार्थों से मुक्त रखने में मदद मिलती है। साथ ही, मानसिक शांति और ध्यान के लिए यह समय उपयुक्त होता है।

देवशयनी एकादशी के लाभ

पापों का नाश और पुण्य की प्राप्ति।

मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति।

शरीर की सफाई और रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि।

जीवन में सुख-समृद्धि और सौभाग्य का आगमन।

निष्कर्ष

देवशयनी एकादशी न केवल एक धार्मिक व्रत है, बल्कि यह जीवन में अनुशासन, संयम और आध्यात्मिक जागरूकता का संदेश देती है। इस दिन भगवान विष्णु के प्रति भक्ति और श्रद्धा से किया गया व्रत जीवन में सकारात्मक बदलाव लाता है। आइए, इस देवशयनी एकादशी पर व्रत करके अपने जीवन को शुद्ध करें और ईश्वर की अनुकंपा प्राप्त करें।