शनिवार, 9 नवंबर 2013

मानव सभ्यता मे रामायण की महत्ता


श्री अनन्तबोध चैतन्य द्वारा जकार्ता मे पढ़ा गया मानव सभ्यता मे रामायण की महत्ता पेपर ................       


मुझे ये कहते हुये परम प्रसन्नता एवं गर्व का अनुभव हो रहा है कि रामायण विश्व साहित्य का आदि काव्य है। रामायण का समय त्रेतायुग का माना जाता है। भारतीय कालगणना के अनुसार समय को चार युगों में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग एव कलियुग। एक कलियुग 4,32,000 वर्ष का, द्वापर 8,64,000 वर्ष का, त्रेता युग 12,96,000 वर्ष का तथा सतयुग 17,28,000 वर्ष का होता है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय न्यूनतम 8,70,000 वर्ष (वर्तमान कलियुग के 5,250 वर्ष + बीते द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष) सिद्ध होता है । बहुत से विद्वान इसका तात्पर्य इसा पू. 8000 से लगाते है जो आधारहीन है। अन्य विद्वान इसे इससे भी पुराना मानते हैं।
करुणार्दचित्त महर्षि बाल्मीकि के मानस सागर से निसृत रामायण रूपी ज्ञान गंगा मे मानवीय सभ्यता के सभी पक्षो का उदात्त चित्रण इसमे समाविष्ट है इस ज्ञान विज्ञान कि सरिता मे अवगाहन कर कोई भी सभ्यता अपनी, आत्मिक बौद्धिक एवं मानसिक मलिनता को दूर कर सकता है।
किसी सभा समुदाय या समाज मे उठने बैठने तथा रहने योग्य मनुष्य को सभ्य कहा जाता है उसी के भाव को सभ्यता कहते है। सभ्यता हमारा बाह्य रहन सहन, खान पान, आचरण भौतिक विकास पारिवारिक सामाजिक संस्कार आदि का परिचायक होता है । संस्कृति हमारी आंतरिक सोच ज्ञान विज्ञान आदि प्रेरक तत्व को बताती है। वैसे आंतरिक ही बाह्य आचरण का कारण होता है । रामायण मानव सभ्यता के विकास मे परम सहयोगी है तथा सदा सर्वदा रहेगी। रामायण के बारे मे कहा गया है कि
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतलेतावत् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।। 
काव्य का प्रयोजन होता है रामादिवत् प्रवर्तितव्यं न रावणादिवत्
हमे श्रेष्ठ पुरुषो राम आदि के समान आचरण करना चाहिये रावण आदि के समान नहीं
रामायण कालीन सामाजिक दर्शन -  
प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान एवं विचार के अनुरूप हि आचरण करता है . और जैसे करता है वैसा हि बन जाता है. जीवन का यही सूत्र है महर्षि वाल्मीकि ने रामचरित्र के माध्यम से मानव जीवन या मानव सभ्यता के विकास मे अपेक्षित सभी गुणो की आवश्यकताओ की चर्चा की है, जिसकी विश्व के प्रत्येक सभ्यता को सदा आवश्यकता रहेगी । आइये कुछ बिन्दुओ पर विचार करते है :----------
रामायण मे वर्णित रामराज्य की सभी प्रजा वेदज्ञ थी ज्ञान सम्पन्न शूरवीर संसार के कल्याण मे संलग्न तथा समस्त मानवीय गुणो जैसे दया, सत्यपरता, पवित्रता, उदारता आदि से युक्त थे.....
सर्वे वेदविदः शूराःसर्वे लोकहिते रताः सर्वे ज्ञानोपसम्पन्नाःसमुदिता गुणैः( बालकाण्ड,बाल्मिकीय रामायण 18/25)
समाज मे सभी वर्ण (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शुद्र) एक दुसरे क सहयोग करते हुये रहते थे जाति भेद य वर्ण भेद कि दूषित भावना नही थी तथा सभी को समान अधिकार तथा न्याय प्राप्त होता था:---------
ब्रह्मक्षत्रमह्रिसन्त्तस्ते कोशं संपूरयन् सुतीक्ष्णदण्डाः संप्रेक्ष्य पुरुषस्या बलाबलम्...
रामायण एक ऐसे सभ्य समाज के निर्माण को संदेश देता है जिस समाज मे धार्मिक न्याय प्रिय राजाओ के सुशासन मे संपुर्ण समाज धन धान्य से युक्त हो सभी गौ आदि पशुओ से समृध, अश्वादि आशुगामी वाहनो से युक्त तथा कोइ भी निर्धन नही हो
आधुनिक सभ्यता मे हम लोग अंध विकास मे आगे दौड़ रहे है जहां सम्पूर्ण विश्व विकास के नाम पर विनाश की तरफ बढ़ रहा है । औद्योगिक विकास यान वाहनों के प्रदूषण से प्रकृति को नष्ट करने तुले हुये है। रामायण के अनुसार धन धान्य-समृद्धि का मूल गौमाता है । वेद मे भी कहा गया है है कि ---
धेनुः सदनं रयीणाम् गाय सर्वविध धन समृद्धि की खान है ।
प्राकृतिक एवं शुद्ध गौ वंश की रक्षा कर हम मानव सभ्यता को स्वस्थ एवं दीर्घायु कर सकते है। तथा अश्व युक्त वाहनों और तत्कालीन बिना ईंधन से उड़ने वाले हवाई जहाजों(पुष्पक विमान) की खोज कर उनके प्रयोग से विश्व पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त कर सकते है।
रामायण कालीन सभ्यता का वर्णन करते हुये बाल्मीकि मुनि जी कहते है कि अयोध्या नगरी मे कोई नर नारी कामी, कंदर्प , निष्ठुर, मूर्ख ( अविद्वान ) और नास्तिक नहीं था। सभी नर नारी धार्मिक , जितेंद्रिय महर्षियों के समान सच्चरित्र एवं शालिन थे। सभी लोग नित्य अग्निहोत्र करते थे। कोई क्षुद-वृत्ति वाला या चोर नहीं था । सभी अंहिसा यम नियमो का पालन करते और दानी थे। कोई भी व्यक्ति पागल तनावग्रस्त या व्यथित चित्त वाला नहीं था । सभी पुत्र पौत्र सहित आनंद पूर्वक दीर्घायु जीवन व्यतीत करते थे।
इस प्रकार तत्कालीन सभ्यता का चित्रण हमे उस तरह का एक समृद्ध , ज्ञानवान , शीलवान तथा धार्मिक मानव सभ्यता की महत्ता को बताता है । आज उस का अनुसरण कर अपनी विकृत सामाजिक व्यवस्था को दूर कर एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सकता है ।
संस्कार
एक सभ्य मनुष्य एवं समाज तथा विश्व के निर्माण के लिए सोलह संस्कारों ( गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यंत) की मानव जीवन में अत्यंत महत्ता है। जिन कर्मो से मानव जीवन मे हम लोग उत्कृष्ट गुणोंका आधान कर सके उसे संस्कार कहते है । वैदिक गृह्य सूत्रोंमे इनका विस्तार से वर्णन मिलता है । यदि हम मनुष्य को श्रेष्ठ बनाना चाहते है तो प्रत्येक व्यक्ति के संस्कार करने चाहिए। सच्चे अर्थों मे एक श्रेष्ठ व्यक्ति ही एक सभ्य मनुष्य कहलाने का अधिकारी होता है । तथा उसी से श्रेष्ठ सभ्यता का निर्माण होता है । रामायण मे गर्भाधान , पुंसवन ,जातकर्म तथा नामकरण आदि संस्कारों का उल्लेख मिलता है । जैसे महर्षि वशिष्ठ द्वारा राम लक्ष्मण आदि के नामकरण का वर्णन बाल्मीकीय रामायण के बाल काण्ड मे देखने को मिलता है । हमें अपने प्रिय जनों के नाम सार्थक रखने चाहिए सुंदर एवं श्रेष्ठ शब्दोंका प्रभाव भी सुंदर व श्रेष्ठ होता है । शास्त्रों मे शब्द तथा अर्थ का नित्यसंबंध माना जाता है।
पञ्च यज्ञ परम्परा-
रामायण सभ्यता पञ्च यज्ञ की परम्परा को अनुसरण करती थी , वैदिक सभ्यता मे ब्रह्म यज्ञ , देव यज्ञ ( अग्निहोत्र ) पितृ यज्ञ अतिथि यज्ञ तथा बलि वैश्व देव यज्ञ को पञ्च महायज्ञ के नाम से जाना जाता है । वैसे यज्ञ शब्द अपने आप मे बहुत विस्तारित अर्थ रखता है जैसे देव पूजा, बड़ों का सम्मान,संगतिकरण यानि मिलकर संगठित होकर चलना तथा दान परोपकार को भावना आदि दिव्य भाव यज्ञ के अंतर्गत समाहित होते है । यह यज्ञ ही समस्त भुवन को एक सूत्र मे बांध कर रखनेवाला परम उपाय एवं साधन है, सर्वविध सुख समृद्धि तथा शांति प्रदान करने वाला है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को ये पाँच यज्ञ अवश्य करने चाहिए।
अतिथि यज्ञ  ---
रामायण मे अतिथि यज्ञ के अनेक उद्दात प्रसंग है , जो हमे गृहागत अतिथि देवता को देव तुल्य मानसम्मान देने की शिक्षा देता है। जब राम लक्ष्मण और सीता जी वन मे पहुंचे तो ऋषि मुनियों ने भी उन्हे विधिवत सत्कार दिया-
अतिथिं पर्णशालायां राघवं संन्यवेश्यन् मङ्गलानि प्रयुञ्जाना मुदा परमया युताः
मूलं पुष्पं फ़लम् सर्वमाश्रमं च महात्मनः ।।
अतिथि यज्ञ सम्पूर्ण मानव जाति मे मानव मात्र मे आत्म दर्शन कर अभ्यास करा कर उस सर्व व्यापक सत्ता के साथ हमारा तादात्म्य स्थापित करता है ।
पितृ यज्ञ
रामायण के मातापिता को देवता के समान सम्मान देने की शिक्षा देता है । राम माता कैकेयी की इच्छा और पिता दशरथ की आज्ञा का पालन कर राज्य छोड़कर वनवास हेतु चले गए । आज की धन लोलुप हमारी सभ्यता मे थोडी सी धनसंपति के लिए पिता के वधकरने मे भी संकोच नहीं करते । राम माता पिता की सेवा मे सदा तत्पर रहते थे । बाल्मीकी जी राम के विषय मे कहते है कि
धनुर्वेदे च निरतःपितु शुश्रूषणे रतः  बाल्मीकिय  रामायण  बालकाण्ड18/28
बलिवैश्व यज्ञ
बलि वैश्व देव प्राणी मात्र के प्रति दया एवं उसके संरक्षण की शिक्षा देता है । आज की मानव सभ्यता अपनी इच्छा पूर्ति के लिए बहुत से पशु पक्षियों एवं कीटपतंगों को मारकर अपने ही विनाश को आमंत्रित कर रहा है । रामयणोक्त बलि वैश्व देव आज की सभ्यता को प्राणी मात्र की रक्षा का संदेश देता है । रामायण मे वर्णित ऋषि मुनि भी नित्य बलि होम आदि यज्ञ करते थे
बलिहोमार्चितं पुण्यं ब्रह्मघोषनिनादितं .................
इस प्रकार रामायण की सभ्यता का अनुसरण आधुनिक सभ्यता की आध्यात्मिक, आधिदैविक, सामाजिक , पारिवारिक आदि समस्याओ को दूर कर एक श्रेष्ठ सभ्यता के निर्माण मे सहयोग कर सकता है ।
पारिवारिक आदर्श
आज की भोगवादी सभ्यता के कारण पूरे विश्व मे परिवार विघटित हो रहे है । पश्चिमी देशों मे इसकी दुर्दशा हम देख सकते है । रामायण मे पारिवारिक जीवन का एक उच्च आदर्श प्रतिपादित है जिससे हम सभी सुपरिचित है । राम पिता की आज्ञा मानकर साम्राज्य छोड़कर वन मे चले जाते है, सीता राजभवन का ऐश्वर्य त्याग कर पातिव्रत्य धर्म का पालन करने भयंकर अरण्य मे चली जाती है और लक्ष्मण भी भाई व भाभी की सेवा मे राजसुख को त्यागकर उनके अनुगामी बनते है। जब रावण छल से सीता को हर कर ले जाता है और श्रीराम और लक्ष्मण वन में भटक रहे थे, तभी मार्ग में उन्हें आभूषण मिलते हैं, जो माता सीता के थे। मगर लक्ष्मण कहते हैं कि प्रभु मैं इन आभूषणों को नहीं पहचानता। मैं तो केवल पैर के बिछुए को ही पहचानता हूं। वह श्रीराम को बताते हैं कि प्रभु मैंने अपनी माता के दूसरे आभूषणों को देखने की चेष्टा नहीं की केवल मां के चरणों को ही देखा है। लक्ष्मण रूपी देवर जिस घर में रहेगा उस घर का बाल बांका भी नहीं हो सकता, सभी के दिलों से वैर नामक जहर पनपना बंद होकर आपसी प्रेम व भाईचारा बढेगा। दूसरी तरफ भरत राज सत्ता पाकर भी अपने को भाइयो के बिना अधूरा समझता है और त्याग पूर्वक राज्य करते हुये अपने भाइयो के लौटने की प्रतीक्षा करता है। यहाँ कैकेयी एक आदर्श माता हैं। अपने पुत्र राम पर कैकेयी के द्वारा किये गये अन्याय को भुला कर वे कैकेयी के पुत्र भरत पर उतनी ही ममता रखती हैं जितनी कि अपने पुत्र राम पर।  हनुमान एक आदर्श भक्त हैं, वे राम की सेवा के लिये अनुचर के समान सदैव तत्पर रहते हैं। शक्तिबाण से मूर्छित लक्ष्मण को उनकी सेवा के कारण ही प्राणदान प्राप्त होता है। इनके पावन चरित्र का स्मरण ही क्षुद्र स्वार्थो के कारण टूटते हमारे दाम्पत्य जीवन एवं परिवारों को बचा सकता है। रामायण हमे सही रास्ते पर ले जाने का संदेश देती है। यह हमें बखूबी सिखाती  है कि मां-बाप, पति-पत्नी, भाई-बंधू व राजा-प्रजा के क्या कर्तव्य हैं।

नारी की स्थिति

किसी भी सभ्यता का मानदंड वहां की नारियो की स्थिति होती है हम तथाकथित सभ्य लोग स्त्रियो के साथ कैसा व्यवहार करते है; उनकी शैक्षणिक, आर्थिक,राजनैतिक स्थिति कैसी है ? इस से उस सभ्यता की श्रेष्ठता तथा निकृष्टता का ज्ञान होता है । रामायण मे वर्णित कौशल्या, सीता, अनसूयादि उदात्त एवं पवित्र  चरित्र आज की नारी को बहुत कुछ सीखा सकता है। आज की कुछ नारी पढ़ लिख कर सुंदर वस्त्र पहन कर बाध्य रूप से सभ्य तो हो गयी किन्तु शालीनता पवित्रता त्याग आदि गुणो से रहित होती जा रही है जिसका उसके जीवन तथा उसके परिवार मे शुख शांति का अभाव सा होता दिखाई दे रहा है । नारियो के प्रति सम्मान की तो रामायण मे पराकाष्ठा ही दिखाई देती है एक जटायु नामक पक्षी भी स्त्री का अपमान होते नहीं देख सकता था उसने भी वृद्ध होते हुये अपने प्राणो की चिंता न करते हुये परम शक्तिशाली रावण के साथ युद्ध किया। यह बताता है कि हमे स्त्री के सम्मान की रक्षा करनी चाहिए ।

पर्यावरण----

आज की हमारी आधुनिक अंधी विकास परंपरा हमारे पर्यावरण को नष्ट करने मे लगी हुई है । रामायण मे नदी, सरोवर, वन, वृक्ष, वायु तथा समग्र प्रकृति को देवी तुल्य उपासना एवं व्यवहारका वर्णन है । पशु पक्षी के प्रति तो मित्र के समान व्यवहार देखने को मिलता है। क्रोञ्च के वध से करुणाद्र हृदय महर्षि बाल्मीकी के मानस सरोवर से  रामायण रूपी काव्य गङ्गा का अवतरण इस भूलोक पर हुआ ।  अतः एव हमे आज समस्त प्रकृति का संरक्षण एवं आराधन करना चाहिए।

वास्तु एवं विज्ञान ---

रामायण जहां त्यागवादी सभ्यता को दर्शाता है वहींएक श्रेष्ठ मानव सभ्यता के विभिन्न पहलुओ को भी दर्शाता है । वहां अयोध्या के वर्णन मे श्रेष्ठ नगर निर्माण , मार्ग , उद्यान , दुर्ग , परिखा , विचित्र गृह , मणि निर्मित तोरण ,सुरक्षित सुसज्जित घर , यंत्र तोप आदि अस्त्र शस्त्र, बिना ईंधन के पुष्पक विमान आदि का वर्णन प्राप्त होता है । विश्वकर्मा निर्मित लंका पुरी , अलका पुरी, रामसेतु आदि का निर्माण आज कि हमारी सभ्यता के लिए एक उदाहरण है एवं अनुकरणीय है ।

रामायण की साहित्यिक महत्ता -----

रामायण भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत माना जाता है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर सैकड़ों वर्ष से लोग ग्रंथ लिखते आ रहे हैं, फिर भी अघाते नहीं हैं। यह ग्रंथ भारत की विभिन्न भाषाओं के अलावा विश्व की कई भाषाओं में लिखा गया है। साहित्यिक रचनाओं का उपजीव्य ढूंढने के लिए रामायण आज भी समस्त भारतीय भाषाओं के लिए अक्षयकोष है। इसके साथ ही रामायण हमारी राष्ट्रीय अस्मिता अैर सांस्कृतिक चेतना का निर्विकल्प आश्रय भी है। रामायण के अनुशीलन मात्र से ईश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम का उदय होता है, भक्ति उत्पन्न होती है। अंत:करण शुद्ध होता है। इसलिए यह एक विलक्षण एवं चिरंजीवी ग्रंथ है। साहित्यिक दृष्‍टि से भी यह विश्‍व साहित्य की अनमोल रचना है। इसपर धारावाहिक और फ़िल्मों का भी निर्माण हो चुका है। विश्‍व की अनेक भाषाओं में इस कथा का अनुवाद हो चुका है। रामायण में तत्कालीन समाज के रीतिरिवाजों और शासन पद्धति का वर्णन किया गया है। शाश्‍वत मूल्यों के विकास में रामायण की महत्‍ता आज भी उतनी है जितनी प्राचीनकाल में थी। ‌रामायण की रचना मानव के जीवन के सर्वांगीण विकास और शाश्‍वत जीवन-मूल्यों को प्रेरित करने के उद्देश्य से की गई है। जैसे भातृ-प्रेम, त्याग, सत्य, प्रतिज्ञा-पालन, आज्ञा-पालन आदि।

रामायण की विश्व-व्यापकता –----

रामायण की विश्व-व्यापकता तो उस समय से बन चुकी थी जब 19वीं शताब्दी में लाखों निर्धन भारतीय विशेषरूप से अवध एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के निवासी रोजी-रोटी की खोज में भारत से सुदूर फिजी, मॉरीशस, त्रिनिडाड, गुयाना, सूरीनाम, जमैका, आदि देशों में पहुंचे और अपने साथ तुलसीदासकृत रामायण ले गए, जो हर संकट और संघर्ष में उनका सम्बल और सहयोगी बनी।
प्रवासी भारतीयों की दूसरी धारा भी पूर्व और पश्चिम के अनेक देशों में गई, जो अपेक्षाकृत नवीन हैविशेषरूप से 20वीं शताब्दी की और उसमें भी 1947 के भारत विभाजन के बाद की। गत शताब्दी में ही विभाजन से पूर्व लाखों की संख्या में दक्षिण भारतीय और गुजराती क्रमशः मलाया, बर्मा, श्रीलंका तथा अफ्रीकी आदि देशों में फैल चुके थे। ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीयों का प्रवास अधिकांश इसी शताब्दी का है। इन भारतीयों के साथ भी रामायण की धारा विश्व के कोने-कोने में फैली, जिसका माध्यम चाहे रामचरित मानस रहा हो या वाल्मीकि रामायण अथवा कंबन रामायण आदि।
रामायण की तीसरी या अत्यंत सशक्त धारा पूर्व और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में गई, जो इन देशों की संस्कृति की अभिन्न अंग बनकर छा गई। चीन में भी जातक कथाओं के माध्यम से यह धारा पहुंच गई। इस धारा का प्रभाव इतना शक्तिशाली था कि वहां के कवियों ने अपने देशों की भाषाओं में रामायणें रचीं और उनमें स्थानीय रंग भर दिए। इस धारा का और अधिक प्रवाह यह हुआ कि इन देशों में रामायण में वर्णित नगरों, नदियों, व्यक्तियों आदि के नाम रखे जाने लगे। फलस्वरूप कालान्तर में स्थानीय लोग यह मानने लगे कि रामायण की घटनाएं उनके देश में घटित हुईं। इन रामायणों में घटनाओं के निर्वाह में भले ही अनेक अंतर है, किंतु स्रोत वाल्मीकि रामायण ही मानी जाती है। कुछ रामायणों में विभिन्न प्रसंगों का निर्वाह रामकथा के विद्वानों या विज्ञ पाठकों को हास्यास्पद भी लग सकता है। यहां का रामायण धर्म और अध्यात्म से अछूती है, किंतु संस्कृति से पूरी तरह जुड़ी है। इसलिए भारत के अतिरिक्त एशियाई देशों की रामायण धारा को हम सांस्कृतिक धारा कह सकते हैं।
रामायण की इस धारा की कुछ झलक दक्षिण-पूर्व एशिया में भी मिलती है। और सच बात तो यह है कि विश्व के इसी भाग ने राम और उनके देश को भली भांति समझा भी तथा उनकी महत्ता भी स्वाकीर की। थाईलैंड के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में राम पूर्णतः समरस हैं। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस देश में कहीं-कहीं राम और बुद्ध के बीच कोई पृथकता की रेखा नहीं है। यहां के जीवन में दोनों का सहअस्तित्व है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बैंकाक स्थित शाही बुद्ध मंदिर है, जिसमें नीलम की मूर्ति हैं। यह मंदिर पूरे देश में बहुत प्रसिद्ध है तथा दूर-दूर से लोग इसके दर्शनार्थ आते हैं। मंदिर की दीवारों पर संपूर्ण रामकथा चित्रित है। इस देश की अपनी रामायण हैरामकियेन, जिसके रचयिता नरेश राम प्रथम थे। उन्हीं के वंश के नरेश राम नवम् वर्तमान में देश के शासक हैं।
थाईलैंड में राम के दर्शन एक स्थान पर अपने भव्यरूप में होते हैं और वह है बैंकाक स्थिति राष्ट्रीय संग्रहालय। इस संग्रहाल्य में जैसे ही आप प्रवेश करेंगे धनुर्धारी राम के दर्शन होंगे। अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि थाईलैंड में एक अयोध्या है और लवपुरी (लोपबुरी) भी। अयोध्या स्थित संग्रहालय की एक अधीक्षिका ने मुझे बताया था कि थाईवासियों का विश्वास  है कि रामायण की घटनाएँ उनके देश में ही घटीं। थाई जीवन में राम की लोक प्रियता की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसके प्रमाण यहां के शास्त्रीय नृत्य हैं, जिनमें रामकथा के दर्जनों प्रसंग प्रदर्शित किए जाते हैं। वे नृत्य आज भी थाईलैंड में लोकप्रिय हैं।
कम्बोडिया में राम के महत्व का जीता-जागता सबूत है अंगकोरवाट, जो दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक है। यहां बुद्ध शिव, विष्णु, राम आदि सभी भारतीय देवों की मूर्तियां पाई जाती हैं। इसका निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में सूर्यवर्मन द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में कई भाग हैंअंगकोरवाट, अंगकोर थाम, बेयोन आदि। अंगकोरवाट में रामकथा के अनेक प्रसंग दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। जैसे सीता की अग्नि परीक्षा, अशोक वाटिका में रामदूत हनुमान का आगमन, लंका में राम-रावण युद्ध, वालि-सुग्रीव युद्ध आदि यहां की रामायण का नाम रामकेर है, जो थाई रामायण से बहुत मिलती-जुलती है। इस प्रकार लाओस और बर्मा आदि बौद्ध देशों के जीवन में भी रामकथा का महत्त्व है, जो नृत्य नाटकों और छायाचित्रों के माध्यम से देखा जा सकता है। यहां के बौद्ध मंदिरों में इनके प्रदर्शन होते हैं।
और यहाँ इंडोनेशिया में भी चाहे वाली का हिंदू हो या जावा-सुमात्रा का मुसलमान, दोनों ही राम को अपना राष्ट्रीय महापुरुष और राम साहित्य तथा राम संबंधी ऐतिहासिक अवशेषों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर समझता है। जोगजाकार्ता से लगभग 15 मील की दूरी पर स्थित प्राम्बनन का मंदिर इस बात का साक्षी है, जिसकी प्रस्तर भित्तियों पर संपूर्ण रामकथा उत्कीर्ण है।
वाली  में रामलीला या रामकथा से संबंधित नृत्य-नाटिकाओं की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. इस द्वीप का वातावरण पूर्णतः संस्कृतिमय है। इंडोयेशिया की प्रसिद्ध रामायण का नाम रामायण काकविन है। मलेशिया में रामायण मनोरंजन का अच्छा माध्यम है। यहां चमड़े की पुतलियों द्वारा रात्रि में रामायण के प्रसंग दिखाए जाते हैं। इस देश की रामायण का नाम हेकायत सेरीरामा है जिसमें राम को विष्णु का अवतार माना गया है। यद्यपि इस पर इस्लाम का प्रभाव भी स्पष्ट है। सिंहल द्वीप में कवि नरेशकुमार दास ने छठी शताब्दी में जानकी हरण काव्य की रचना की थी। यह संस्कृत ग्रंथ है। बाद में इसका सिंहली भाषा में अनुवाद हुआ। आधुनिक काल में जॉन डी.सल्वा ने रामायण का रूपान्तरण किया।
देवभाषा संस्कृत को पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में स्थान मिलने के कारण वाल्मीकि रामायण से इनका परिचय शताब्दियों पूर्व हो गया था किंतु रामचरित मानस( तुलसी दास कृत रामायण) के प्रति पश्चिमी देशों का आश्चर्यजनक रूक्षान मुख्यतः गत शताब्दी से ही शुरू हुआ है, जिसका अनुवाद अभी तक लगभग सभी महत्त्वपूर्ण विश्वभाषाओं में हो गया है और अभी हो रहा है। फ्रांसीसी विद्वान गासां दतासी ने 1839 में रामचरित् मानस के सुंदर कांड का अनुवाद किया। फ्रांसीसी भाषा में मानस के अनुवाद की धारा पेरिस विश्विविद्यालय के श्री वादि विलन ने आगे बढाई।
अंग्रेजी में तुलसीदास कृत रामायण का पद्यानुवाद पादरी एटकिंस ने किया जो बहुत लोकप्रिय है। इसका प्रकाशन हिंदुस्तान टाइम्स में देवदास गांधी ने करवाया था। इसी प्रकार के अनुवाद जर्मनी सोवियत संघ आदि में हुए। रूसी भाषा में मानस का अनुवाद करके अलेक्साई वारान्निकोव ने भारत-रूस की सांस्कृ़तिक मैत्री की सबसे शक्तिशाली आधारशिला रखी। उनकी समाधि पर मानस की अर्द्धालीभलो भलाहिह पै लहैलिखी है, जो उनके गांव कापोरोव में स्थित है। यह सेट पीटर्सबर्ग के उत्तर में है। चीन में वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस दोनों का पद्यानुवाद हो चुका है। डच, जर्मन, स्पेनिश, जापानी आदि भाषाओं में भी रामायण के अनुवाद हुए हैं।
शोध-ग्रंथ के माध्यम से भी पश्चिमी देशों में यह धारा आगे बढ़ी है। माना जाता है कि हिंदी साहित्य में सर्वप्रथम इटली निवासी डॉ. टेसीटोरी ने लिखा और फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में 1910 में उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी गई। विषय थामानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन। दूसरा शोधग्रंथ लंदन विश्वविद्यालय में 1918 में जे.एन. कार्पेण्टर ने प्रस्तुत किया। विषय थाथियोलॉजी ऑफ तुलसीदास

संतोष का विषय है कि रामायण की यह विश्वव्यापी भूमिका प्रकाश में आने लगी है और इसमें अनेक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक धाराओं के साथ अंतराष्ट्रीय रामायण सम्मेलनों की एक धारा की बी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसके अंतर्गत अब तक 12 देशों में 17 से ज्यादा रामायण सम्मेलन हो चुके हैं। भारत से शुरू होकर कई विश्व-परिक्रमाएं कर चुकी यह सम्मेलन श्रृंखला एक विश्व सांस्कृति मंच के रूप में उभरकर आई है।

रामायण लोकतंत्र का आदर्श स्वरूप----

विगत कुछ समय से विश्व कुछ देशो में लोकतंत्र के असंतुलित होते जा रहे स्वरूप को लेकर बुद्धिजीवी वर्ग की चिंता बढ़ी है। रामायण कालीन भारत में लोक-स्पंदन का जीवन था, अब सत्ता के दंड का संचरण है।  लोकतंत्र के तत्वों में लोक अभिव्यक्ति, लोक अनुभूति, लोक संचरण और लोक में विलय की सांस्कृतिक अर्थों में व्याख्या  रामायण में राम द्वारा अपनाये  गए 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' और 'सर्वभूत: हितेरता:' जैसे लोकतंत्र के आधार स्तम्भ नियम है जिन नियमों को श्री राम ने राजा होते हुए भी निभाया। यदि आज भी ऐसी लोकतंत्र की अवधारणा को आत्मसात कर लिया जाये  तो संभवत: आज हम विश्व में सर्वाधिक खुशहाल और संपन्न लोकतांत्रिक राष्ट्र बन गए होते।

उपसंहार-----

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि विश्व मानचित्र के लगभग दो-तिहाई हिस्से को रामायण ने अनेक स्तरों पर और अनेक रूपों में प्रभावित किया है। आज भी मिस्र और रोम से लेकर वियतनाम, कंबोडिया और  यहाँ इंडोनेशिया तक रामायण संस्कृति का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। वैश्विक जनमानस को जिस कथा ने सर्वाधिक प्रभावित किया है वह रामायण  ही है। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि सदियों गुजर जाने के बाद भी रामायण वैश्विक सांस्कृतिक चेतना का केन्द्र बिन्दु बनी हुई है। इसकी विश्व व्यापकता अपने आप में कही न कही इस बात का इशारा करती है कि रामायण हमारी सभ्यता, जीवन और संस्कृति का आधार स्तम्भ ही है। जिस प्रकार रामायण के सारे चरित्र  अपने अपने  धर्म का पालन करते हैं। वैसे ही  इन चरित्रों से सीख लेकर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बना सकता है या ये कहा जाये कि रामायण का अनुसरण करके ही आज कि समस्त समस्याओ से मुक्ति पा सकते है अन्य कोई उपाय नहीं है।





बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

--- आत्मा निरूपण ---


       

--- आत्मा निरूपण ---

            ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
               तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
                  ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!
(हे परमात्मन् आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ- साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् त्रिविध ताप की शान्ति हो। आध्यात्मिक ताप (मन के दु:ख) की, अधिभौतिक ताप (दुष्ट जन और हिंसक प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो।)
Aum! May Brahman (the Supreme Being) protect us both (The Guru and Shishya), May He give enjoyment us! May we attain strength! May our study be illuminative! May there be no jealous among us! 
आत्मा या आत्मन् पद भारतीयदर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों (विचार) में से एक है। यह उपनिषदों के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में आता है। जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से किया गया है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाश नहीं होता। आत्मा का निरूपण श्रीमद्भगवदगीता और कठोपनिषद में किया गया है।
जो विवेकशील है, जिसने मन सहित अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो सदैव पवित्र भावों को धारण करने वाला है, वही उस आत्म-तत्त्व को जान पाता है; क्योंकि
'एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रय्या बुद्धिया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥' 1/3/12॥ अर्थात समस्त प्राणियों में छिपा हुआ यह आत्मतत्त्व प्रकाशित नहीं होता, वरन् यह सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले तत्त्वदर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि से दिखाई देता है।
जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा ---
सूत्रकाल में ईश्‍वरवाद अत्‍यन्‍त क्षीण प्रायः था। भाष्‍यकारों ने ही ईश्‍वर वाद की स्‍थापना पर विशेष बल दिया। आत्‍मा को ही दो भागों में विभाजित कर दिया गया- जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा।
ज्ञानाधिकरणमात्‍मा । सः द्विविधः जीवात्‍मा परमात्‍मा चेति।'1
इस दृष्‍टि से आत्‍मा ही केन्‍द्र बिन्‍दु है जिस पर आगे चलकर परमात्‍मा का भव्‍य प्रासाद निर्मित किया गया।
आत्‍मा को ही बह्म रूप में स्‍वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद्‌ युग में मिलती है। प्रज्ञाने ब्रह्म', ‘अहं ब्रह्मास्‍मि', ‘तत्‍वमसि', ‘अयमात्‍मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्‍य इसके प्रमाण है। ब्रह्म प्रकृष्‍ट ज्ञान स्‍वरूप है। यही लक्षण आत्‍मा का है। मैं ब्रह्म हूँ', ‘तू ब्रह्म ही है; ‘मेरी आत्‍मा ही ब्रह्म है' आदि वाक्‍यों में आत्‍मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं। आत्‍मा एवं परमात्‍मा का भेद तात्‍विक नहीं है; भाषिक है। समुद्र के किनारे खड़े होकर जब हम असीम एवं अथाह जलराशि को निहारते हैं तो हम उसे समुद्र भी कह सकते हैं तथा अनन्‍त एवं असंख्‍य जल की बूँदों का समूह भी कह सकते हैं। स्‍वभाव की दृष्‍टि से सभी जीव समान हैं। भाषिक दृष्‍टि से सर्व-जीव-समता की समष्‍टिगत सत्ता कोपरमात्‍मा' वाचक से अभिहित किया जा सकता है। आत्‍मा एवं परमात्‍मा का भेद तात्‍विक नहीं है; भाषिक है।" परमात्मा इस जीवात्मा के हृदय-रूपी गुफ़ा में अणु से भी अतिसूक्ष्म और महान से भी अतिमहान रूप में विराजमान हैं। निष्काम कर्म करने वाला तथा शोक-रहित कोई विरला साधक ही, परमात्मा को कृपा से उसे देख पाता है। दुष्कर्मों से युक्त, इन्द्रियासक्त और सांसारिक मोह में फंसा ज्ञानी व्यक्ति भी आत्मतत्त्व को नहीं जान सकता।
आत्मा और परमात्‍मा दोनो अलग-अलग है, आत्मा रचना है और परमात्मा उसके रचयिता है इस आधार से दोनो मे पिता-पुत्र का नाता हो जाता है दोनो का स्वरूप भी एक जैसा ही है. जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा दोनो के गुण भी समान ही है। जीवात्मा जन्म-मरण में आती है परमात्मा जन्म- मरण में  नही आते । लेकिन जीवात्मा को  ८४ लाख योनियों में  उसके कर्मो के अनुसार जन्म लेना पडता है।
'योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥2/2/7'
अर्थात अपने-अपने कर्म और शास्त्राध्ययन के अनुसार प्राप्त भावों के कारण कुछ जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त करते हैं और अन्य अपने-अपने कर्मानुसार जड़ योनियों, अर्थात वृक्ष, लता, पर्वत आदि को प्राप्त करते हैं।
आत्मा का स्वरुप --
सृष्टि का मूल तत्व आत्मा है  जिस प्रकार सूर्य ब्रह्माण्ड को ज्योर्तिमय कर देता वैसे ही यह आत्मा  क्षेत्र ज्योति भर देता है। आत्मा-जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित करता है अर्थात सूर्य के कारण संसार है , जीवन है आदि उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।
'एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्रय्या बुद्धिया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥' 1/3/12
अर्थात समस्त प्राणियों में छिपा हुआ यह आत्मतत्त्व प्रकाशित नहीं होता, वरन् यह सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले तत्त्वदर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि से दिखाई देता है।
'न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥' 1/2/18
अर्थात यह नित्य ज्ञान-स्वरूप आत्मा न तो उत्पन्न होता है और न मृत्यु को ही प्राप्त होता है। यह आत्मा न तो किसी अन्य के द्वारा जन्म लेता है और न कोई इससे उत्पन्न होता है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत औ क्षय तथा वृद्धि से रहित है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह विनष्ट नहीं होता।
ईश्‍वर ---
अधिकांश दर्शन एवं धर्म ईश्‍वर' को सृष्‍टि एवं जीवों को उत्‍पन्‍न करने वाला, उनका पालन करने वाला एवं उनके भाग्‍य का निर्धारण करने वाला मानते हैं। कर्ता/पालनकर्ता /संहारकर्ता के रूप में परम शक्‍ति' की अवधारणा अधिकांश धर्मों में है। मध्‍ययुगीन चेतना के केन्‍द्र में ईश्‍वर' प्रतिष्‍ठित है। परमशक्‍ति' के कहीं अवतार के रूप में, कहीं पुत्र के रूप में, कहीं प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्‍ठित है।
स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमसनाविरं शुद्धमपापविद्वम् |
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ||8||

(वह ईश्वर सर्वत्र व्यापक है,जगदुत्पादक,शरीर रहित,शारीरिक विकार रहित,नाड़ी और नस के बन्धन से रहित,पवित्र,पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी,ज्ञानी,सर्वोपरि वर्तमान,स्वयंसिद्ध,अनादि,प्रजा (जीव) के लिए ठीक ठीक कर्म फल का विधान करता है|)

(वह ईश्वर सर्वत्र व्यापक है,जगदुत्पादक,शरीर रहित,शारीरिक विकार रहित,नाड़ी और नस के बन्धन से रहित,पवित्र,पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी,ज्ञानी,सर्वोपरि वर्तमान,स्वयंसिद्ध,अनादि,प्रजा (जीव) के लिए ठीक ठीक कर्म फल का विधान करता है|)
He (The Self) is all pervasive, like space (Atman is preset everywhere), resplendent (luminous as the sun), bodiless, spotless, without nerves, pure, untouched by sin. He is the knower of all, omniscient, self-existent; he is the one who has organized all the materiel objects to be available for eternal years.
यहाँ यह द्रष्‍टव्‍य है कि भारतीय आत्‍मवादी दर्शनों के अनुयायी साधकों ने भी मध्‍य युग में ईश्‍वर कर्तृत्‍व' को सिद्धान्‍त रूप में अथवा लौकिक व्‍यवहार में मान्‍यता प्रदान की। जिन्‍होंने आत्‍मा को अनादि-निधन, अविनाशी और अक्षय माना उन्‍होंने भी मध्‍य युग में ईश्‍वर कर्तृत्‍व में आस्‍था व्‍यक्‍त की। ईश्‍वर की भक्‍ति, स्‍तुति एवं जयगान को ही धर्म-आचरण का पर्याय मान लिया गया। परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर किया है, जिससे जीवात्मा बाहरी पदार्थों को देखता है और सांसारिक भोग-विलास में ही उसका ध्यान रमा रहता है। वह अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता, किन्तु मोक्ष की इच्छा रखने वाला साधक अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अन्तरात्मा को देखता है। यह अन्तरात्मा ही ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग है। जहां से सूर्यदेव उदित होते हैं और जहां तक जाकर अस्त होते हैं, वहां तक समस्त देव शक्तियां विराजमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं लांघ पाता। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को जानने के लिए सत्य और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है।
पातंजलि योग सूत्र के अनुसार क्लेश कर्म विपाक आशय से रहित पुरुष विशेष ही ईश्वर है। 
अवश्यंभावी मृत्यु ----
ऐसा माना जाता है कि मानव शरीर नश्वर है, जिसने जन्म लिया है उसे एक ना एक दिन अपने प्राण त्यागने ही पड़ते हैं। भले ही मनुष्य या कोई अन्य जीवित प्राणी सौ वर्ष या उससे भी अधिक क्यों ना जी ले लेकिन अंत में उसे अपना शरीर छोड़कर व्यष्टि से समष्टि में विलीन होना पडता है। यद्यपि इस सच से हम सभी भली-भांति परिचित हैं लेकिन मृत्यु के पश्चात जब शव को अंतिम विदाई दे दी जाती है।
गीता में भी कहा गया है की “जातस्य हि धुर्वो मृत्यु ध्रुवं हि जन्म मृतस्य च।  
जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म भी निश्चित होता है। अतः एव मृत्यु को अवश्यंभावी माना गया है।
मृत्यु के पश्चात ----
कठोपनिषद में एक कथा है जिसमें यम (मृत्यु के देवता) और नचिकेता (उद्दालक मुनि के पुत्र) के मध्य (शरीर की) 'मृत्यु के बाद जीवन' के विषय पर एक संवाद है। कठोपनिषद के अनुसार उस चैतन्य और अजन्मा परब्रह्म का नगर ग्यारह द्वारों वाला है- दो नेत्र, दो कान, दो नासिका रन्ध्र, एक मुख, नाभि, गुदा, जननेन्द्रिय और ब्रह्मरन्ध्र। ये सभी द्वार शरीर में स्थित हैं। कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर, जो साधक द्वारों के मोह से सर्वथा अलिप्त रहकर नगर में प्रवेश करता है, वह निश्चय ही परमात्मा तक पहुचता हैं शरीर में स्थित एक देह से दूसरी देह में गमन करने के स्वभाव वाला यह जीवात्मा, जब मृत्यु के उपरान्त दूसरे शरीर में चला जाता है, तब कुछ भी शेष नहीं रहता। यह गमनशील तत्त्व ही ब्रह्म है। यही जीवन का आधार है। प्राण और अपान इसी के आश्रय में रहते हैं। अब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मृत्यु के उपरान्त आत्मा का क्या होता है, अर्थात वह कहां चला जाता है।'यमराज ने आगे कहा-
'योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥2/2/7
अर्थात अपने-अपने कर्म और शास्त्राध्ययन के अनुसार प्राप्त भावों के कारण कुछ जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त करते हैं और अन्य अपने-अपने कर्मानुसार जड़ योनियों, अर्थात वृक्ष, लता, पर्वत आदि को प्राप्त करते हैं।
समस्त जीवों के कर्मानुसार उनकी भोग-व्यवस्था करने वाला परमपुरुष परमात्मा, सबके सो जाने के उपरान्त भी जागता रहता है। वही विशुद्ध तत्त्व परब्रह्म अविनाशी कहलाता है, जिसे कोई लांघ नहीं सकता। समस्त लोक उसी का आश्रय ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नितत्त्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके प्रत्येक आधारभूत वस्तु के अनुरूप हो जाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों में स्थित अन्तरात्मा(ब्रह्म) एक होने पर भी अनेक रूपों में प्रतिभासित होता है। वही भीतर है और वही बाहर है।
शरीर त्यागने के बाद कहां जाती है आत्मा ? इस विषय में गरूड़ पुराण जो मरने के पश्चात आत्मा के साथ होने वाले व्यवहार की व्याख्या करता है उसके अनुसार जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो उसे दो यमदूत लेने आते हैंमानव अपने जीवन में जो कर्म करता है यमदूत उसे उसके अनुसार अपने साथ ले जाते हैं अगर मरने वाला सज्जन है, पुण्यात्मा है तो उसके प्राण निकलने में कोई पीड़ा नहीं होती है लेकिन अगर वो दुराचारी या पापी हो तो उसे पीड़ा सहनी पड़ती है गरूड़ पुराण में यह उल्लेख भी मिलता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को यमदूत केवल 24 घंटों के लिए ही ले जाते हैं और इन 24 घंटों के दौरान आत्मा दिखाया जाता है कि उसने कितने पाप और कितने पुण्य किए हैं इसके बाद आत्मा को फिर उसी घर में छोड़ दिया जाता है जहां उसने शरीर का त्याग किया था. इसके बाद 13 दिन के उत्तर कार्यों तक वह वहीं रहता है13 दिन बाद वह फिर यमलोक की यात्रा करता है
पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्याग कर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं. उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है. ये तीन मार्ग हैं अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग. अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है.
मोक्ष –
कठोपनिषद में यमराज नचिकेता को कहते है कि हे नचिकेता ! मृत्यु से पूर्व, जो व्यक्ति ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह जीव समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है, अन्यथा विभिन्न योनियों में भटकता हुआ अपने कर्मों का फल प्राप्त करता रहता है। यह अन्त:करण विशुद्ध दर्पण के समान है। इसमें ही ब्रह्म के दर्शन किये जा सकते हैं। जब मन के साथ सभी इन्द्रियां आत्मतत्त्व में लीन हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टारहित हो जाती हे, तब इसे जीव की 'परमगति' कहा जाता है। इन्द्रियों का संयम करके आत्मा में लीन होना ही 'योग' है। हृदय की समस्त ग्रन्थियों के खुल जाने से मरणधर्मा मनुष्य अमृत्व, अर्थात 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।' ऐसी विद्या को जानकर नचिकेता बन्धनमुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो गया।
भारतीयदर्शन में नश्वरता को दु:ख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दु:ख मय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलत: सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्राय: आत्मवादी है। अंततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है।
यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दु:ख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को "विदेहमुक्ति" कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनंद की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनंद में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, अनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है, और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्यास्मि" की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदांत में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है।
उपसंहार ---
मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही आत्मा को जानना होना चाहिएसनातन धर्म में शास्त्रों के अनुसार ‘आत्मा वारे श्रोतव्या, मन्तव्या निदिध्यासितव्या’ आत्मा का ही श्रवण करना चाहिए, मनन करना चाहिए तथा निदिध्यासन करना  चाहिए यही उपनिषदों का सन्देश है । अर्थात आत्म तत्त्व का श्रवण और हमारी आत्मा कि आवाज दोनों को हि सुनना चाहिए । आज के व्यस्त जीवन में हमें आत्मानुसंधान के लिए भी समय निकालना चाहिए
              ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
                 पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
                        ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (जगत) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण (परब्रह्म) से ही पूर्ण (जगत) की उत्पत्ति होती है। तथा पूर्ण (जगत) का पूर्णत्व लेकर (अपने में समाहित करके) पूर्ण (परब्रह्म) ही शेष रहता है। त्रिविध ताप (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक) की शांति हो।
    ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
Om! That (Karana Brahma) is a complete whole. This (Karya Brahma) too is a complete whole. From the complete whole only, the (other) complete whole rose. Even after removing the complete whole from the (other) complete whole, still the complete whole remains unaltered and undi
sturbed.
                    OM! PEACE! PEACE! PEACE! 
Written by :- -   Anantbodh Chaitanya 
                 Shri Yantra Mandir, Daksh Road
                 Kankhal, Haridwar, Uttrakhanda ( India)