"साक्षात्कृत धर्माण ऋषयो बभूवु:। तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृत-धर्मभ्य: उपदेशेन मन्त्रान् संप्रादु:।"
(धर्म के साक्षात्कार करने वाले तपस्वी जो 'मन्त्रद्रष्टा' ऋषि हैं, उन्होंने अपने से अवर कोटि के व्यक्तियों को, जो धर्म का साक्षात्कार नहीं कर सके, उन्हें मन्त्र का उपदेश दिया।)
इस प्रकार ज्ञान के आदान (गुरु द्वारा) -- प्रदान (शिष्य को) की परम्परा ही सनातन धर्म का मूल है, अनादिकालीन है।
हमारे यहां गुरु को ब्रह्मा-विष्णु महेश ही नहीं प्रत्युत् साक्षात् परब्रह्म कहा है, और विचार करने पर इसमें किसी भी प्रकार की अतिश्योक्ति प्रतीत नहीं होता।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परम ब्रह्मा तस्मै श्री गुरवे नमः।
'गुरु' शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थों पर ध्यान दें तो यह और अधिक स्पष्ट होता है।
'गुरु' शब्द 'गृ' धातु से निष्पन्न होता है। पाणिनीय व्याकरण शास्त्र में 'गृ' धातु विभिन्न पांच अर्थों में पठित है~~~
१... 'गृ शब्दे' क्रयादिगणीय गृ धातु से गृणाति---- उपदिशति धर्मज्ञानम् सृजति----समुत्पादयतीतिगुरु: इस तरह गुरु ज्ञान-स्रष्टा ब्रह्मा हैं।
२... 'गृ सेचने' भ्वादिगणीय गृ धातु से गरति-सिंचति ज्ञान जलेन शिष्य ह्रदय क्षेत्रम् इति गुरु:।
शिष्य ह्रदय को उर्वरित कर ज्ञान को अंकुरित प्रवर्द्धित करने के कारण गुरु विष्णु है।
३... 'गृ निगरणे' तुदादिगणीय गृ धातु से गिरति अज्ञानम् नाशयति इति गुरु:।
अज्ञान का संहारक होने के कारण गुरु महेश्वर हैं।
४... 'गृ विज्ञाने' चुरादिगणीय गृ धातु से गारयति-बोधयति शास्त्रम् इति गुरु:।
परमतत्व का बोध कराकर ब्रह्मसाक्षात्कार कराते हैं, अतः गुरु साक्षात् ब्रह्म स्वरूप हैं।
५... 'गुरी उद्यमने' तुदादिगणीय गुर् धातु से गुरते-सत्पथे प्रवर्तयति शिष्यम् इति गुरु:।
अर्थात् गुरु सन्मार्ग का निर्देश करते हुए गुरु
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