|| शिवस्तुति: || [[ हिन्दीसहिता ]]
••••••••••••••••
कमलदलमनाप्य स्वाक्षिकस्योज्जिहीर्षु:
कमलनयनवत्वात् कामलं कल्पयंस्तत्
समुदितशुभभावश्रद्धया वर्तमानश्
शिव शिव शिव नूनं भक्तिदार्ढ्यैकलोक:||१||
एक हजार कमल के पुष्पों से भगवान् शिव की पूजा करते समय अंतिम कमल को अनुपलब्ध पाकर, "मैं कमलनयन हूं" ऐसा सोचकर , स्वयं की ही आंख निकालने के लिए तैयार भगवान् विष्णु की इस बढ़ी हुई श्रद्धा के भाव को देखकर प्रसन्न होने वाले, हे शिव! आप निश्चित ही लोगों की भक्ति की दृढ़ता की परीक्षा लेने वाले हैं।
अतिशयगुणधाम्नो धाम कैलाशनाम
हिमवति हिमशीते देववृक्षा विभान्ति
अहिहरिवृषकेक्याख्वावृताश्शाम्भवाश्च
तदहह दशशिरस्कस्स्वौजसोत्पाटनेच्छु:||२||
अतिशय गुणों के धाम भगवान शिव का जो कैलाश नाम का जो धाम है, वह हिमालय पर स्थित है! जहां बर्फ के ठंडेपन में देववृक्ष शोभा देते हैं । सांप, मोर, चूहा , शेर, वृषभ (सांड) इन अपने-अपने वाहनों से शिव परिवार वहां रहता है। लेकिन बड़ा आश्चर्य है, अपनी ताकत के प्रभाव को ना सहन कर पाने के कारण रावण उस कैलाश पर्वत को भी उखाड़ना चाहता है।
सुरमुनिनरदैत्या: यद्बलात्त्रास-माप्ता:
यमवरुणहुताशास्तेजसा येन बद्धा:
मरुदपि न वहेच्चेन्नादिशेत् तद् दशास्य:
जय जय शिव शम्भो! तेऽनुकम्पाप्रभाव:||३||
सुर , नर, मुनि, दैत्य ये सब जिसके बल से त्रस्त थे! यमराज , वरुण देवता , अग्निदेव को जिसने अपने तेज के प्रभाव से बांध रखा था, उस रावण की आज्ञा के बिना पवन देव भी बह नहीं सकते थे ! जय हो , जय हो शिव! आपकी कृपा का महान् प्रभाव है।
अतिशयबलवेगं रोद्धुमेवं न सोढा
शतशतनगरीणां पालको हेमवोढा
जितदिविजभुजाभ्यां कण्डुखण्डप्रचण्डस्
तव शिव हिमधामोत्पाटने दत्तबाहु:||४||
वह उस अपने अत्यंत बल के वेग को रोकने में सक्षम नहीं हुआ, सैकड़ों नगरियों का पालन करने वाला, स्वर्ण का वहन करने वाला, देवताओं को जीतने वाले अपने दोनों भुजाओं से (जो भुजाएं ताकत की खुजली के कारण प्रचंड हो उठी थी) हे शिव! वह रावण आपके इस बर्फीले धाम को भी उखाड़ना चाहता था।
शिरसि वहति कैलासं शिवस्यापि गेहं
प्रकृतिचलितपादाङ्गुष्ठवेगात् पुरारे:
अतलवितललोके नैव पाताललोके
क्व भजति शिव मानात् त्वां गतो ना प्रतिष्ठाम्||५||
भगवान् शिव के घर कैलाश पर्वत को उसने अपने सिर पर उठा लिया, लेकिन स्वाभविक रूप से
जब शिव के पैर के अंगूठा का हल्का सा दबाव पड़ा, तब - अतल, वितल, सुतल, पाताल लोक में भी वह रावण रुक न सका, धंसता चला गया ! सत्य ही है, अभिमानपूर्वक आपके पास आया हुआ मनुष्य , कहां प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है (कहीं नहीं)!
पतति महति कष्टे पर्वतात्पीड्यमान:
ह्वयति पुररिपुं च स्तौति भक्त्यैकचित्त:
अतिशयमहिमाढ्यै: पण्डितत्वप्रदर्शै:
शिवभजनसुसक्तस्ताण्डवस्तोत्रपद्यै:||६||
पर्वत के तले दबा होने के कारण, अत्यंत कष्ट में पड़ा हुआ रोने लगा, तथा फिर त्रिपुरारि को आवाज दी! अतिशय महिमा युक्त , अत्यंत पाण्डित्य पूर्ण ताण्डव स्तोत्र के श्लोकों से, वह शिव की स्तुति करने लगा!
इति च तमनुवीक्ष्य ह्याशुतोषस्तुतोष
स्मरति न कृतधार्ष्ट्यं नैव किञ्चिद् रुरोष
सपदि दशशिरस्कं स्वात्मभावैर्युयोज!
वरद! तव कृपा किं वर्षतान्मादृशेऽपि?७?
ऐसा उसको देखकर भगवान् आशुतोष तुरंत संतुष्ट हो गए, खुश हो गए , उसने जो धृष्टता (बदतमीजी) की उस पर उनका क्रोध जाता रहा, उसको भुला दिया! तत्काल ही रावण को अपने भावों से युक्त किया (अपना बना लिया) ! हे वरदान देने वाले! क्या हम जैसे लोगों पर भी आप कृपा बरसाएंगे?
शिरसि वहति गङ्गां मस्तके यो हिमांशुं
हुतवहमथ भाले वासुकिं चैव कण्ठे
वसति मृतकदेशे भस्मनोद्धूलिताङ्गो
गरलगल! गलेन्मे ग्लानिमुत्पत्तिजन्याम्||८||
सिर पर गंगा, मस्तक पर चंद्रमा, माथे पर धधकती हुई अग्नि, कंठ में नागराज वासुकि, श्मशान भूमि में निवास, चिता की भस्म से लिपटा हुआ शरीर, गले में धारण किया हुआ विष, ऐसे शिव हमारे जन्म-मरण की ग्लानि को नष्ट करें!
दिनमुखे नगरे नगसंवृते
उदयपूरिति वीरभुवि प्रिया
शिवगुरोस्स्तुतिरर्कसुरश्मिषु
विरचिता हृदयेन हिमांशुना||९||
सुबह के समय, सूर्य की नई किरणों में बैठकर, पहाड़ियों से घिरे हुए नगर, वीरभूमि मेवाड़ में भगवान् शिव की यह स्तुति हिमांशु ने की।
*******
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें