गुरु पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराती है कि ज्ञान का स्रोत गुरु ही हैं – वे मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत और ब्रह्मतत्व के संवाहक हैं।
"गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥"
यह पावन श्लोक गुरु की महिमा को अक्षुण्ण रूप से चित्रित करता है। गुरु पूर्णिमा—सनातन धर्म का वह दिव्य पर्व, जो ज्ञान के प्रकाश से आत्मा के अंधकार को मिटाता है और गुरु के प्रति श्रद्धा का संचार करता है। आइए, इसके गूढ़ अर्थ, ऐतिहासिक महत्व और आधुनिक प्रासंगिकता को जानें।
'गुरु' का अर्थ और महत्व
संस्कृत में 'गु' का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' का अर्थ है उसे दूर करने वाला। इस प्रकार, गुरु वह है जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर आत्मज्ञान का प्रकाश फैलाता है। गुरु केवल एक शिक्षक नहीं, बल्कि वह दिव्य शक्ति है जो हमें सही मार्ग दिखाती है। 'गुरु' शब्द की व्युत्पत्ति पाणिनीय व्याकरण में 'गृ' धातु से मानी गई है, जो निम्नलिखित अर्थों में प्रकट होती है:
गुण | विवरण |
---|---|
गृणाति | ज्ञान उत्पन्न करता है, जैसे ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं। |
सिंचति | ज्ञान से हृदय को सींचता है, जैसे विष्णु संसार का पालन करते हैं। |
नाशयति अज्ञानम् | अज्ञान का नाश करता है, जैसे शिव संहार करते हैं। |
बोधयति शास्त्रम् | शास्त्रों का गूढ़ ज्ञान कराता है, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। |
सन्मार्ग दर्शक | जीवन के हर मोड़ पर सही राह दिखाता है। |
इसीलिए गुरु को साक्षात् परब्रह्म कहा गया है, जो शिष्य को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करता है।
सनातन परंपरा में गुरु की भूमिका
हमारी सनातन परंपरा में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। महर्षि यास्क ने अपने 'निरुक्त' ग्रंथ में कहा है:
"साक्षात्कृत धर्माण ऋषयो बभूवु:। तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृत-धर्मभ्य: उपदेशेन मन्त्रान् संप्रादु:।"
अर्थात्, धर्म का साक्षात्कार करने वाले तपस्वी ऋषियों ने अपने से अवर कोटि के व्यक्तियों को, जो धर्म का साक्षात्कार नहीं कर सके, उन्हें मंत्रों का उपदेश दिया। यह गुरु-शिष्य परंपरा सनातन धर्म की नींव है, जो ज्ञान के आदान-प्रदान को अनादिकाल से जीवित रखती है।
गुरु पूर्णिमा: कब और क्यों?
गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, जो इस वर्ष 10 जुलाई 2025 को है। यह पर्व मुख्य रूप से महर्षि वेदव्यास को समर्पित है, जिन्होंने वेदों को चार भागों में विभाजित कर ज्ञान को संरचित किया। इसीलिए इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास को आदि गुरु माना जाता है, जिन्होंने अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाया।
महर्षि वेदव्यास का अतुलनीय योगदान
महर्षि वेदव्यास, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन व्यास के नाम से भी जाना जाता है, का जन्म गुरु पूर्णिमा के दिन हुआ था। वे महाभारत, 18 पुराण, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भागवत जैसे महान ग्रंथों के रचयिता हैं। उन्होंने वेदों को चार भागों—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद—में विभाजित किया और अपने चार प्रमुख शिष्यों—पैल, वैशंपायन, जैमिनी और सुमंतु—को वेदों की शिक्षा दी। यह भी माना जाता है कि उन्होंने दत्तात्रेय जैसे महागुरु को भी शिक्षा दी, जिन्हें "गुरुओं के गुरु" कहा जाता है।
बौद्ध परंपरा में महत्व
गुरु पूर्णिमा का महत्व केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं है। बौद्ध परंपरा में यह दिन विशेष श्रद्धा से मनाया जाता है, क्योंकि इस दिन भगवान बुद्ध ने सारनाथ (उत्तर प्रदेश) में अपना पहला उपदेश दिया था, जिससे धम्मचक्र प्रवर्तन का सूत्रपात हुआ। बौद्ध अनुयायी इस दिन अपने गुरु, भगवान बुद्ध के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
कृषि, प्रकृति और साधना से संबंध
गुरु पूर्णिमा से चातुर्मास की शुरुआत होती है, जो चार महीने की अवधि है जब वर्षा ऋतु के कारण तपस्वी और आध्यात्मिक गुरु एक स्थान पर रुककर शिष्यों को शिक्षा देते हैं और ध्यान-साधना में लीन रहते हैं। यह समय किसानों के लिए भी शुभ माना जाता है, क्योंकि वर्षा ऋतु की शुरुआत से भूमि को जीवन मिलता है और फसलें लहलहाती हैं। यह आध्यात्मिक कक्षाएं शुरू करने और साधना को गहन करने का भी उत्तम समय है।
गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का दिन
इस दिन शिष्य अपने गुरु के चरणों में उपस्थित होकर आभार, सेवा और समर्पण व्यक्त करते हैं। यह आत्मनिरीक्षण, साधना और संकल्प का दिन है। भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में जहाँ-जहाँ गुरु-शिष्य परंपरा जीवित है, वहाँ यह पर्व श्रद्धा से मनाया जाता है।
स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी महाराज: एक प्रेरणादायी जीवन
इस पावन अवसर पर, मैं अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री 1008 स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी महाराज को सादर नमन करता हूँ। वे निर्वान पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर थे, जिन्होंने भक्ति, ज्ञान और सेवा के माध्यम से अनगिनत शिष्यों के जीवन को आलोकित किया।
प्रारंभिक जीवन: स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी का जन्म कैलाश नाथ शुक्ल के रूप में हुआ। बचपन से ही उनकी रुचि आध्यात्मिकता और धर्म में थी। वेदों और शास्त्रों के अध्ययन ने उन्हें सन्यासी जीवन अपनाने के लिए प्रेरित किया।
सन्यास और साधना: 16 वर्ष की आयु में उन्होंने घर त्याग दिया और नैमिषारण्य के पास दरियापुर गाँव में पुज्य स्वामी सदानंद परमहंस से मुलाकात की। वहाँ उन्होंने 5-6 वर्ष तक विभिन्न साधनाओं में महारत हासिल की और आत्मज्ञान प्राप्त किया।
सन्यास दीक्षा: 1962 में स्वामी अतुलानंद जी ने उन्हें सन्यास दीक्षा दी, जिसके बाद वे परमहंस परिव्राजक आचार्य स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज के नाम से जाने गए। यह दीक्षा हिंदू धर्म में उच्चतम आध्यात्मिक स्तर का प्रतीक है।
विश्व भ्रमण और सेवा: उन्होंने भारत और विश्व भर में तीर्थयात्राएँ कीं, लोगों की समस्याओं को समझा और उनके समाधान के लिए कार्य किया। उनकी शिक्षाएँ "वसुधैव कुटुंबकम्" (विश्व एक परिवार है) के सिद्धांत पर आधारित थीं।
विश्व कल्याण फाउंडेशन: हरिद्वार में स्थापित श्री यंत्र मंदिर उनकी आध्यात्मिक और सामाजिक सेवा का प्रतीक है। यह मंदिर आज भी उनकी शिक्षाओं और दिव्य उपस्थिति का केंद्र है।
विरासत: 7 मई 2013 को उनकी महासमाधि के बाद भी, उनकी शिक्षाएँ और श्री यंत्र मंदिर अनगिनत शिष्यों को प्रेरित करते हैं।
मैं, अनंतबोध चैतन्य, स्वामी विश्वदेवानंद पुरी जी महाराज का एक विनम्र शिष्य हूँ। उनकी दिव्य कृपा और शिक्षाओं ने मेरे जीवन को भक्ति, ज्ञान और सेवा के मार्ग पर प्रेरित किया है। उनके द्वारा स्थापित श्री यंत्र मंदिर और विश्व कल्याण फाउंडेशन के माध्यम से, मैं उनकी शिक्षाओं को विश्व भर में फैलाने और उनकी आध्यात्मिक विरासत को जीवित रखने के लिए समर्पित हूँ। उनकी शिक्षाओं ने मुझे प्रेम, एकता और आत्मजागृति का सच्चा अर्थ सिखाया है।
निष्कर्ष
गुरु पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराती है कि गुरु ही ज्ञान का स्रोत हैं—वे मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत और ब्रह्मतत्व के संवाहक हैं। इस पावन दिन पर, आइए हम अपने सभी गुरुओं को स्मरण करें—चाहे वे आध्यात्मिक हों, शैक्षिक हों, या जीवन के अनुभवों से प्राप्त हों। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें और उनके दिखाए मार्ग पर चलने का संकल्प लें।
श्री गुरु चरणों में साष्टांग प्रणाम।
भवदीय,
अनंतबोध चैतन्य
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