महानुशासनम् ~
यह ग्रँथ भगवान भाष्यकार द्वारा लिखित है।
इसकी हस्तलिखित प्राचीन प्रतियां पुरी, कामरूप, काशी तथा पूना में प्राप्त हुई है।
इसमें जगद्गुरु शंकराचार्य के पदपर बैठने वाले संन्यासी की योग्यता का वर्णन किया गया है।
शंकराचार्य पद पर जन्मना ब्राह्मण , दण्डधारी एक दण्डी संन्यासी ही बैठ सकता है।
।।अथ महानुशासनम्।।
"आम्नाया: कथिता ह्वेते यतीनां च पृथक्-पृथक्।
ते सर्वे चतुराचार्या: नियोगेन यथाक्रमम्।।१।।"
(संन्यासी आचार्यों के गुरु परम्परानुसार पृथक्-पृथक् उपदेश बताए गये है। यह सब चारों आचार्य अपने-अपने धर्मों में लगे।)
"प्रयोक्तव्या: स्वधर्मेषु शासनायास्ततोऽन्यथा।
कुर्वन्तु एव सततमटनं धरिणी तले।।२।।"
(यदि इस महानुशासन के विपरीत चलें तो विद्वानों द्वारा उनपर शासन किया जा सकता है, तथा यह आचार्य निरन्तर पृथ्वी पर भ्रमण करते रहें।)
"विरुद्धाचरण प्राप्तावाचार्याणां समाज्ञया।
लोकान् संशीलयन्त्येव स्वधर्माप्रतिरोधत:।।३।।"
(जब देश में विरुद्ध आचरण होने लगे, तब आचार्यों की आज्ञा से जनता को धर्म की मर्यादा के अनुसार शिक्षा दे।)
"स्व स्व राष्ट्र प्रतिष्ठित्यै संचार: सुविधीयताम्।
मठे तु नियतो वास आचार्यस्य न युज्यते।।४।।'
(अपने-अपने क्षेत्र की प्रतिष्ठा के लिए आचार्य विचरण करते रहें। उनका मठ में नियत रूप से वास उचित नहीं है।)
"वर्णाश्रम सदाचारा अस्माभिर्ये प्रसाधिता:।
रक्षणीयास्तु एवैते स्वे स्वे भागे यथाविधि:।।५।।"
(हमने वर्णाश्रम सदाचार की जो मर्यादा स्थापित की है, उसकी वे अपने-अपने क्षेत्र में विधिपूर्वक रक्षा करें।)
"यतो विनष्टिर्महती धर्मस्यात्र प्रजायते।
मांद्यं सन्त्याज्यमेवात्र दाक्ष्यमेव समाश्रयेत्।।६।।"
(इस युग में धर्म की जब महान् हानि हो रही है, ऐसे में प्रमाद का त्याग कर आचार्यगण चतुराई से काम लें।)
"परस्पर विभागे तु प्रवेशो न कदाचन।
परस्परेण कर्त्तव्या आचर्येण व्यवस्थिति:।।७।।
(एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश न करें। आचार्य आपस में मिलकर इसकी व्यवस्था करें।। अर्थात् तीर्थयात्रा के उद्दयेश्य से सर्वत्र जा सकते हैं, परन्तु वहां की जनता से कर न लें)
"मर्यादाया: विनाशेन लुप्तेरन्नियमा: शुभा:।
कलहाङ्गार सम्पत्तिरतस्तां परिवर्जयेत्।।८।।"
(मर्यादा के नष्ट हो जाने पर अच्छे नियम लुप्त हो जाते हैं, कलह रूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, अतः इसे रोकना चाहिए।)
"परिव्राडाचार्य मर्यादां मामकीनां यथाविधि:।
चतु: पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् पृथक्।।९।।"
(मेरे द्वारा बताई हुई श्रेष्ठ मर्यादा को चारों पीठों की सत्ता विधिपूर्वक सदुपयोग करें।)
"शुचिर्जितेन्द्रियो वेद वेदाङ्गादि विशारद:।
योगज्ञ: सर्व शास्त्राणां समदा स्थानमाप्नुयात्।।१०।।"
(शुद्धान्त:करण, जितेन्द्रिय, वेद-वेदाङ्ग का ज्ञाता, समस्त शास्त्रों में कुशल, योगाभ्यासी ऐसा आचार्य ही मेरे पीठ को प्राप्त करें।)
"उक्त लक्षण सम्पन्न: स्याच्चेन्मत् पीठभाग् भवेत्।
अन्यथा रूढ़ पीठोऽपि निग्रहार्हो मनीषिणाम्।।११।।"
(ऊपर कहे गये लक्षणों से युक्त यति ही मेरे आसन पर बैठ सकता है। इसके विपरीत लक्षणों वाला संन्यासी यदि पीठ पर बैठा हो तो विद्वान उसे हटा दें।)
"न जातु मठमुच्छिन्द्यादधिकारिण्युपस्थिते।
विघ्नानामपि बाहुल्यदेष धर्म: सनातन:।।१२।।"
(विघ्नों की अधिकता होने पर भी अधिकारी आचार्य के रहते मठ को किसी प्रकार की हानि न पहुँचाई जाये, यह सनातन धर्म है।)
"अस्मत् पीठ समारुढ परिव्राडुक्तलक्षण:।
अहमेवेति विज्ञेयो यस्य देव इति श्रुते:।।१३।।"
(उक्त लक्षणों से युक्त यती जो मेरी पीठ पर बैठा हो, "यस्य देवे परा भक्ति: यथा देवे तथा गुरौ" 'जैसे इष्ट देव के प्रति भक्ति है वैसे ही गुरुओं में भी भक्ति है' इस श्रुति के अनुसार वह मेरा ही स्वरूप है, ऐसा जानो।)
"एक एवाभिषेच्य: स्यादन्ते लक्षणसम्मत:।
तत्तत् पीठे क्रमेणैव न बहु युज्यते क्वचित्।।१४।।"
(पूर्ववर्ती संन्यासी के अभाव में ऊपर कहे हुए लक्षणों से युक्त उन पीठों पर एक ही शंकराचार्य का अभिषेक किया जाये, अधिक का नहीं)
"सुधन्वन: समौत्सुक्य निवृत्यै धर्महेतवे।
देवराजोपचारांश्च यथावदनुपालयेत्।।१५।।"
(सुधन्वा राजा की उत्सुकता की निवृत्ति तथा धर्म के लिए, देवताओं तथा राजा के व्यवहारों का यथोचित पालन करना चाहिए।)
"केवलं धर्ममुद्दिश्य विभवो ब्रह्मचेतसाम्।
विहितश्चोपकाराय पद्मपत्र नयं व्रजेत्।।१६।।"
(ब्रह्मज्ञानी शंकराचार्य का वैभव छत्र, चमर सिंहासनादि केवल धर्म के उद्दयेश्य तथा लोकोपकार के लिए है। इस सम्बंध में आचार्य कमल पत्रवत् जैसे कमलपत्र जल में रहते हुए भी जल का प्रभाव उसपर नहीं पड़ता, निर्लेप रहे।)
"सुधन्वा हि महाराजस्तदन्ये च नरेश्वरा:।
धर्म परम्परीमेतां पालयन्तु निरन्तरम्।।१७।।"
(महाराज सुधन्वा तथा अन्य राजा धर्म की इस परम्परा का निरन्तर पालन करें।)
"चातुर्वर्ण्यं यथायोग्यं वाङ्मन: काय कर्मभी:।
गुरो: पीठं समर्चेत विभागानुक्रमेण वै।।१८।।"
(चारों वर्ण योग्यता के विभागानुसार मनसा, वाचा, कर्मणा गुरु पीठ का पूजन करें।)
"धरामालम्व्य राजान: प्रजाभ्य: करभागिन:।
कृताधिकारा: आचार्या: धर्मतस्तद्वदेव हि।।१९।।"
(जैसे राजा लोग प्रजा के कर के भागी हैं। वैसे ही आचार्य भी धर्मानुसार प्रजा से कर लेने के अधिकारी हैं।)
"धर्मो मूलं मनुष्याणां सचाचार्यावलम्बन:।
तस्मादाचार्य सुमणे: शासनं सर्वतोऽधिकम्।।२०।।"
(मनुष्य का मूल धर्म है, और वह धर्म आचार्य के आश्रित है। इसीलिए आचार्य रूपी सुमणि का शासन सबसे अधिक है।)
"तस्मात् सर्व प्रयत्नेन शासनं सर्वसम्मतम्।
आचार्यस्य विशेषेण ह्यौदार्य भरभागिन:।।२१।।"
(अतः विशेष रूप से आचार्य का शासन सर्व सम्मत, उदारतापूर्ण तथा भारवाहन समर्थ विशेष रूप से होना चाहिए।)
"आचार्याक्षिप्त दण्डास्तु कृत्वा पापानि मानव:।
निर्मला स्वर्गमायान्ति सन्त: सुकृतिनो यथा।।२२।।"
(पाप करने वाला मनुष्य आचार्य द्वारा दण्डित होने पर निर्मल सुकृति सन्तों के समान स्वर्ग का भागी होता है।)
"इत्येवं मनुरप्याह गौतमोऽपि विशेषत:।
विशिष्ट शिष्टाचारोऽपि मूलादेव प्रसिद्ध्यति।।२३।।"
(इस प्रकार मनु तथा गौतम ने विशेष रूप से कहा है। विशिष्ट पुरुषों का शिष्टाचार मूल से ही प्रसिद्ध है।)
"तानाचार्योपदेशांश्च राजदण्डांश्च पालयेत्।
तस्मादाचार्य राजानावनवद्यौ न निंदयेत्।।२४।।"
(आचार्यों के उपदेश तथा राजदण्ड का सर्वथा पालन करें। अतः निर्दोष आचार्य तथा राजा की निन्दा न करें।)
"धर्मस्य पद्धति ह्र्वेषा जगत: स्थिति हेतवे।
सर्व वर्णाश्रमाणां हि यथा शास्त्रं विधीयते।।२५।।"
(संसार की रक्षा के लिए धर्म की यही पद्धति है कि शास्त्रानुसार सभी वर्णाश्रमों के लिए विधान करती है।)
"कृते विश्व गुरु ब्रह्मा त्रेतायामृषि सत्तमा:।
द्वापरे व्यास एव स्यात् कलावत्र भवाम्यहम्।।२६।।"
(सत्य युग में जगद्गुरु ब्रह्मा, त्रेता में ऋषिश्रेष्ठ दत्तात्रेय, द्वापर में व्यास जी तथा कलियुग में मैं शंकराचार्य गुरु हूँ।)
।।इति श्रीमद्भगवत्पाद शंकराचार्य विरचितं महानुशासनम्।।
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