'महाशिवरात्रि' हिन्दुओं का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। इस रात भगवान शिव सृजन, संरक्षण और विनाश का नृत्य करते हैं।। यह पूरे भारत ही नहीं अपितु विश्व के कई देशों में मनाया जाता है, भगवान शिव के भक्त इस दिन 'उपवास' करते हैं और रात भर जागरण करते हैं! उस दिन मंदिरों में विशेष पूजा की जाती है। इस वर्ष 2021 महाशिवरात्रि 11 मार्च को मनाई जाएगी। हरिद्वार में महाकुम्भ का स्नान भी इसी दिन से शुरू होगा।
'महाशिवरात्रि' के उत्सव के पीछे कुछ कारण हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि महा शिवरात्रि वह दिन है जब भगवान शिव लिंगम के रूप में आए थे (लिंगोदभव”)।शिव पुराण में एक पौराणिक कथा के अनुसार, हिंदू भगवानों और भगवान विष्णु की तीन त्रय - आपस में श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। इस युद्ध की तीव्रता से भयभीत, अन्य देवताओं ने भगवान शिव से हस्तक्षेप करने और उन्हें इस झड़प की निरर्थकता का एहसास करने का अनुरोध किया। ब्रह्मा और विष्णु के बीच शिव ने अग्नि के एक विशाल स्तंभ का रूप धारण किया। बाद के देवताओं ने अग्नि स्तंभ का शिखर खोजने का फैसला किया। भगवान ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया और ऊपर की ओर उड़ गए, जबकि भगवान विष्णु ने वराह (हिंदू देवता विष्णु के अवतार के रूप में वर) का रूप धारण किया और पृथ्वी के अंदर चले गए। जैसा कि प्रकाश असीम है, न तो ब्रह्मा और न ही विष्णु अपनी थकाऊ खोज के बावजूद अंत तक नहीं पहुंच सके। अपनी यात्रा के दौरान, भगवान ब्रह्मा एक केतकी के फूल से धीरे-धीरे नीचे उतरते हुए आए। यह पूछे जाने पर कि वह कहाँ से आई है, फूल ने जवाब दिया कि उसे अग्नि स्तंभ के शीर्ष पर चढ़ाया गया था। भगवान ब्रह्मा ने अपनी खोज को समाप्त करने और फूल को गवाह के रूप में लेने का फैसला किया। इसने शिव को प्रभावित किया, जिन्होंने तब ब्रह्मा को झूठ बोलने के लिए दंडित किया और उन्हें शाप दिया कि कोई भी उनसे कभी प्रार्थना नहीं करेगा। आज तक, केवल एक ही मंदिर है, जो राजस्थान के अजमेर में पुष्कर मंदिर को समर्पित है। जैसा कि केतकी के फूल ने झूठे तरीके से गवाही दी थी, वह भी किसी भी पूजा के लिए प्रसाद के रूप में इस्तेमाल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। चूंकि भगवान शिव ने देवताओं को शांत करने में मदद की, इसलिए उनके सम्मान में महा शिवरात्रि मनाई जाती है।
जबकि कुछ लोग कहते हैं, यह वह दिन है जब भगवान शिव ने पूरी रात शिव तांडव (नृत्य) किया था।
दूसरों का मानना है कि इस दिन जब भगवान शिव ने दुनिया के लिए " हलाहल " (विष) पी लिया और "नीलकंठ" बन गए।
कुछ अन्य लोग भी हैं जो मानते हैं कि यही वह दिन है जब भगवान शिव और देवी पार्वती का विवाह हुआ था।
महाशिवरात्रि प्रमुख हिंदू मंदिरों कोणार्क, खजुराहो, पट्टाडकल, मोढेरा और चिदंबरम में वार्षिक नृत्य समारोहों द्वारा चिह्नित है। नटराज - नृत्यों के सर्वोच्च देवता - भगवान शिव का दूसरा रूप भी है। भगवान के सम्मान के साथ शास्त्रीय नर्तकियों द्वारा भगवान शिव के नृत्य रूपों, तांडव और लस्य को विभिन्न रूपों में किया जाता है।
हम में से कई लोग उपवास, जागरण, अभिषेक, और बहुत कुछ अनुष्ठान करते हैं, लेकिन हम में से अधिकांश प्रथाओं के पीछे के सटीक कारणों से अवगत नहीं हैं।
इस रात ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है कि मनुष्य के भीतर की ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की ओर जाने लगती है. यानी प्रकृति स्वयं मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद कर रही होती है. धार्मिक रूप से बात करें तो प्रकृति उस रात मनुष्य को परमात्मा से जोड़ती है।
उपवास: आंतरायिक उपवास आपके पाचन तंत्र को आराम देता है, और यह आपके चयापचय को अधिक कुशलता से कैलोरी के माध्यम से जलाने के लिए सक्रिय कर सकता है। यदि आपका पाचन खराब है, तो यह भोजन को पचाने और वसा को जलाने की आपकी क्षमता को प्रभावित कर सकता है। आंतरायिक उपवास आपके पाचन को विनियमित कर सकते हैं और स्वस्थ आंत्र समारोह को बढ़ावा दे सकते हैं, इस प्रकार आपके चयापचय में सुधार कर सकते हैं।
जागरण: भक्त पूरी रात जागते हैं, भगवान शिव की पूजा शाम से शुरू होती है और पूरी रात चलती है। रात को 4 पहरों में बांटा गया है। यह माना जाता है कि जो कोई भी शिव का नाम शिवरात्रि के दौरान शुद्ध भक्ति के साथ उपयोग करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। वह शिव के निवास स्थान कैलाश में वास करता है और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
बेल का पत्ता: भोलेनाथ को बेलपत्र बहुत पसंद है, जिसका जिक्र शिव पुराण में भी है. लेकिन इसके अलावा भी कुछ ऐसे पत्ते हैं, जो भोलेनाथ को बेहद प्रिय हैं. भगवान शिव की पूजा करते समय बेलपत्र के अलावा इन पत्तों को भी अवश्य रखना चाहिए।
अभिषेक: पिंडी (लिंग) पर केवल ठंडा पानी डाला जाता है और बेलपत्र चढ़ाया जाता है। चूंकि शिव विघटन के देवता हैं, पिंडी (लिंग) को दूध, पंचामृत, सिंदूर (कुमकुम), हल्दी पाउडर और अक्षत (अखंडित चावल के दाने) चढ़ाए जाते हैं।
शांति और संतान प्राप्ति के लिए गौ दूध से अभिषेक करना चाहिए। शक़्कर मिश्रित दूध सेअभिषेक करनेसे बुद्धि तीव्र होती है । धन की प्राप्ति के लिए गन्ने के रस और स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए शहद से शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए। शत्रु शमन के लिए सरसो के तेल से और मोक्ष प्राप्ति के लिए तीर्थो के जल से अभिषेक करना चाहिए।
प्रदक्षिणा: शिवलिंग के चारों ओर परिक्रमा बाईं ओर से शुरू होनी चाहिए।
एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ‘ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’
उत्तर में शिवजी ने पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- ‘एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।
अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’ शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।’ शिकारी हँसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।’ उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के
लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।’ मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,’ हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।’ मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।’ उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा। थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।
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